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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
भावार्थ:- महारंभी जीव भी इन दशलक्षण आदि पर्वों में जिनमन्दिर जाकर धर्म का सेवन करते हैं इसलिए धर्मपर्वों के कर्ता पुरुष धन्य हैं ।। २६ । ।
आगे मिथ्यात्व को प्रबल करने वाले पर्व जिन्होंने रचे उनकी निन्दा करते हैं :
हिंसक पर्वों के स्थापकों की निन्दा
णामं पि तस्स असुहं, जेण णिद्दिट्ठाई मिच्छपव्वाइ । सिं अणुसंगाओ, धम्मीण वि होइ पावमई । । २७ ।।
अर्थ:- जिन्होंने अधिक जलादि की हिंसा के कारण रूप तथा कंदमूल आदि का भक्षण और रात्रि भक्षण के पोषक मिथ्यात्व के पर्वों की स्थापना की उनका तो नाम भी लेना पाप बंध का कारण है क्योंकि उन मिथ्या पर्वों के प्रसंग से अनेक धर्मात्माओं की भी पापबुद्धि हो जाती है अर्थात् धर्मात्मा भी देखादेखी चंचल बुद्धि हो जाते हैं ।। २७ ।। मध्यम गुण-दोष ही संगति से होते हैं
मज्झट्टिइ पुण ऐसा, अणुसंगेण हवंति गुणदोसा । उक्क पुण पावा, अणुसंगेण ण घिप्पंति ।। २८ ।।
अर्थः- इस प्रकार जो गुण और दोष प्रसंग से होते हैं वे मध्यम स्थिति रूप होते हैं क्योंकि उत्कृष्ट पुण्य-पाप प्रसंग से नहीं होते' ।।
१. टि० - सागर प्रति में इस गाथा का अर्थ इस प्रकार दिया है :
अर्थः- मध्यम स्थिति वाले जीवों को संगति से परिणाम वाले जीवों को अनुसंग ( संगति) से
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गुण-दोष हो जाते हैं परन्तु उत्कृष्ट पुण्य-पाप नहीं होते ।
भव्य जीव