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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
जाता है और ज्ञानी भेदविज्ञान के बल से कर्मों का नाश करके सुखी हो जाता है अतएव विवेकी अर्थात् भेदविज्ञानी होना योग्य है - यह तात्पर्य है ।। २१ ।।
आगे संसार से उदास होने रूप विवेक का उपाय बतलाते हैं :सम्यक्त्व सुगुरु के उपदेश से होता है
जिणमय कहापबंधो, संवेगकरो जियाण सव्वाणं । संवेगो सम्मत्ते, सम्मत्तं सुद्ध देसणया ।। २२ ।।
अर्थः- जिनभाषित जो कथाप्रबंध' हैं वे सब जीवों को संवेग रूप हैं, धर्म में रुचि कराने वाले हैं परन्तु संवेग सम्यक्त्व के होने पर होता है और सम्यक्त्व शुद्ध देशना अर्थात् सुगुरु के उपदेश से होता है ।।
भावार्थ:- शुद्ध निर्ग्रन्थ गुरु के मुख से जिनसूत्र सुने तो श्रद्धानपूर्वक धर्म में रुचि होती है । अश्रद्धानी परिग्रहधारी गुरु के मुख से सुने तो श्रद्धान निश्चल नहीं होता- ऐसा तात्पर्य है ।। २२ ।।
किससे शास्त्र सुनना चाहिये
तं जिण-आण परेण य, धम्मो सोअव्व सुगुरु पासम्मि । अह उचिओ सद्धाओ, तस्सुवएसस्स कहगाओ । । २३ । । अर्थः-अतएव जिन आज्ञा में परायण पुरुष को बाह्य - अभ्यन्तर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ गुरु के निकट ही शास्त्र श्रवण करना चाहिये
१. अर्थ - प्रथमानुयोग के शास्त्र ।
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भव्य जीव