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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
होगा अर्थात् कभी उत्पन्न नहीं होगा अतएव कुगुरु दूर ही से त्याग देना चाहिये' । । ८ । ।
संयमी का सन्ताप
विरयाणं अविरइए, जीवो दद्दूण होइ मणतावो । हा ! हा! कह भव-कूवे, वूडंता पिच्छ णच्चंति ।।६।।
अर्थ:- असंयमी जीवों को देखकर संयमी जीवों के मन में बड़ा सन्ताप होता है कि 'हाय ! हाय !! देखो तो, संसार रूपी कुएँ में डूबते हुए भी ये जीव कैसे नाच रहे हैं !' ।।
भावार्थ:- मिथ्यात्व व कषाय के वशीभूत हुए अज्ञानी जीव संसार भ्रमण के कारण रूप कर्म को हँस-हँसकर बाँधते हैं। उन्हें देखकर श्री गुरुओं के हृदय में करुणा भाव उत्पन्न होता है कि 'ये जीव ऐसा कार्य क्यों करते हैं, वीतरागी होने का उपाय क्यों नहीं करते !' ।। ६ ।।
आगे समस्त पापों में से मिथ्यात्व में अधिक पाप दिखाते हैं :मिथ्यात्व का दुष्कर फल
आरंभ जम्मि पावे, जीवा पावंति तिक्ख दुक्खाई। पुणमिच्छत् लवं, तेण वि ण लहंति जिणबोहिं । । १० । ।
अर्थः- व्यापारादि आरंभ से उत्पन्न हुआ जो पाप है उसके प्रभाव से जीव नरकादि के तीक्ष्ण दुःखों को प्राप्त करता है परन्तु यदि
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भव्य जीव