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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
लोकप्रवाह तथा कुलक्रम में धर्म नहीं
लोयपवाहे सकुले, कम्मम्मि जइ होदु मूढ धम्मुत्ति । तामिच्छाण वि धम्मो, धकाई अहम्म-परिवाडी ।। ६ ।।
अर्थः- हे मूढ़ ! यदि लोकप्रवाह' अर्थात् अज्ञानी जीवों द्वारा माने हुए आचरण में तथा अपने कुल क्रम में ही धर्म हो तो म्लेच्छों के कुल चली आई हुई हिंसा भी धर्म कहलायेगी तब फिर अधर्म की परिपाटी कौन सी ठहरेगी ! ।।
भावार्थ:- लोकप्रवाह तथा कुलक्रम में धर्म नहीं है, धर्म तो जिनवर कथित वीतराग भाव रूप है सो यदि अपने कुल में सच्चा जिनधर्म भी चला आ रहा हो परन्तु उसे कुलक्रम जानकर सेवन करे तो वह भी विशेष फल का दाता नहीं है इसलिए जिनवाणी के अनुसार परीक्षापूर्वक निर्णय करके ही धर्म को धारण करना योग्य है ।।६।। न्याय कभी कुलक्रम से नहीं होता
लोयम्मि रायणीई, णायं ण कुल-कम्मम्मि कय आवि । किं पुण तिलोयपहुणो, जिनिंद धम्माहि गारम्मि ! ।। ७ ।।
अर्थः- लोक में भी राजनीति है कि न्याय कभी कुलक्रम से नहीं होता तो फिर क्या तीन लोक के प्रभु जो अरिहन्त परमात्मा हैं उनके धर्म में न्याय कुलक्रम के अनुसार होगा अर्थात् कभी भी नहीं होगा ।।
१. अर्थ - भेड़चाल । २. अर्थ - कुल परिपाटी ।
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भव्य जीव