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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
अर्थः- रे जीव ! जिनेन्द्रभाषित धर्म अकेला ही संसार के
समस्त दुःखों को हरने वाला है इसलिए हे मूढ़मति ! सुख के लिये अन्य सरागी देवों को नमस्कार करता हुआ तू ठगाया गया है ।।
भावार्थ:- समस्त सुखों का कारण ऐसा जो जिनप्रणीत धर्म उसे प्राप्त करके भी जो मूर्ख प्राणी सुख के लिए अन्य सरागी देवों को पूजता है वह अपनी गाँठ के सुख को तो खो देता है और मिथ्यात्वादि के योग से पाप बंध करके नरकादि में उल्टे दुःख ही भोगता है ।। ३।।
मृत्यु से रक्षक एक सम्यक्त्व ही है
देवेहिं-दाणवेहिं ण, सुउ मरणाउ रक्खिओ कोवि । दिढकय जिण सम्मत्तं, बहुविह अजरामरं पत्ता || ४ ||
अर्थः- देव अर्थात् कल्पवासी देव और दानव अर्थात् भवनत्रिक - इनके द्वारा किसी जीव की मृत्यु से रक्षा हुई हो ऐसा आज तक सुनने में नहीं आया है परन्तु जिन्होंने जिनराज का सम्यक्त्व रूप श्रद्धान दृढ़ किया है ऐसे अनेक ही जीवों ने अजर-अमर पद पाया है ।।
भावार्थ:- इस जीव को समस्त भयों में मरण भय सबसे बड़ा भय है, उसे दूर करने के लिये ये सरागी देवादि को पूजता है परन्तु कोई भी देव इसे मृत्यु से बचाने में समर्थ नहीं है इसलिए सरागियों को पूजना - वंदना मिथ्याभाव है और रागद्वेष रहित सर्वज्ञ अरिहन्त देव
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भव्य जीव