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क्रमांक
विषय ५५. कषायी व कीर्ति इच्छुक के धर्म नहीं होता ५६. उत्सूत्रभाषी के दुःख जिननाथ ही जानते हैं ५७. धीर पुरुष कदापि उत्सूत्रभाषी नहीं होते ५८ मिथ्यादृष्टियों की कदापि प्रशंसा न करना ५६. जिनाज्ञा भंग का किसे भय है, किसे नहीं
६०. जिनदेव की प्राप्ति भी अप्राप्ति समान
६१. स्वधर्म में उपहास तो सर्वथा न करना ६२. शुद्ध हृदय वाले पुरुषों का स्वभाव ६३. विष उगलते हुए सर्प के प्रति भी करुणा ६४. गृहस्थ को सम्यग्दर्शन महा दुर्लभ है। ६५. उत्सूत्रभाषी भव समुद्र में डूब जाता है ६६. निर्मल श्रद्धान से लोकरीति में भी धर्मप्रवृत्ति ६७. जिनधर्म के सामने मिथ्या धर्म तृण तुल्य हैं ६८. अहो ! लोकमूढ़ता प्रबल है
६६. जिनमत की अवज्ञा न कर, दुःख मिलेगा
७०. सम्यक्त्व के बिना तू दोषी ही है
७१. शुद्ध जिनधर्म चाहिये तो मिथ्या आचरण छोड़ ७२. आचरण से साध्य की सिद्धि, कुल से नहीं ७३. उत्सूत्र आचरण करने वाला श्रावक नहीं ७४. निर्णय करके धर्म धारण करना योग्य है ७५. मिथ्यादृष्टियों के धर्म का आचरण योग्य नहीं ७६. वीतरागी की अवहेलना के कार्य मत कर ७७. कुल को भव समुद्र में डुबाने वाला कौन ७८. मिथ्या पर्वों के आचरने वालों को सम्यक्त्व नहीं
७६. कुटुम्ब का मिथ्यात्व हरने वाले विरल हैं
८०. प्रकट भी जिनदेव की अप्राप्ति
८१. मिथ्यात्वरत का मनुष्य जन्म निष्फल है
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