SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं उन्हें महापाप होता है । । ६१ ।। (३४) वीतराग देव के सेवकों को जिनधर्म के सामने मिथ्यादृष्टियों के समस्त धर्म तृण तुल्य तुच्छ भासित होते हैं, उनका अभ्युदय देखकर वे मन में आश्चर्य नहीं करते क्योंकि वे ऐसा जानते हैं कि यह विषमिश्रित भोजन है जो वर्तमान में भला दिख रहा है परन्तु परिपाक में खोटा है । ६७ ।। (३५) जैसे भी बने वैसे जैनमत की श्रद्धा दृढ़ करनी चाहिये और लोकमूढ़ता से मोहित नहीं होना चाहिये। क्योंकि इसे सब लोग करते हैं इसलिए इसमें कुछ तो सार होगा - ऐसा नहीं जानना चाहिये । ।६८ । । (३६) कई अज्ञानी जीव जिनधर्म की अवज्ञा करते हैं और उससे नरकादि के घोर दुःख पाते हैं। उन दुःखों का स्मरण करके ज्ञानियों का हृदय भय से थरथर काँपता है । । ६९ ।। (३७) निर्मल जिनधर्म की वांछा कुदेवों का सेवन आदि मिथ्यात्व का आचरण करते हुए कैसे हो ! ।।७१ ।। (३८) निर्णय करके ही धर्म धारण करना चाहिये के अनुसार यदि धर्म धारण करेगा तो कुल के भी छोड़ देगा और निर्णय करके यदि उसे चलायमान नहीं होगा । ।७४ ।। (३९) जिनके जिनधर्म संतान से चला आया है वे उसमें प्रवर्तते हैं सो तो ठीक ही है परन्तु जो अन्य कुल में जन्म लेकर जिनधर्म में प्रवर्तन करते हैं सो यह आश्चर्य है, वे अधिक प्रशंसा के योग्य हैं ।। ८३ ।। क्योंकि निर्णय के बिना कुल जीव यदि धर्म छोड़ेंगे तो आप धारण करेगा तो कदाचित् (४०) धर्म का सेवन करने वाले धर्मात्माओं को यदि पूर्व कर्म के उदय से कदाचित्-किंचित् विघ्न आ जाये तो पापी जीव उसे धर्म का फल बताते हैं - यह उनकी विपरीत बुद्धि है ||८४|| (४१) कर्मोदय के आधीन मरण और जीवन तो अनादि ही से होता आया है परन्तु जिनधर्म पाना महा दुर्लभ है अतः प्राणान्त के समय में भी सम्यक्त्व त्यागना योग्य नहीं है ।। ८७ ।। (४२) धर्मकार्य के समय में यदि कोई व्यापारादि कार्य आ जाये तो उसको दुःखदायी जानकर धर्मकार्य को छोड़कर पापकार्य में नहीं लगना चाहिये । ।८९ ।। (४३) जिनभाषित धर्म को ही सम्यग्दृष्टि सत्यार्थ जानता है ।।९१।। (४४) जिनाज्ञा से ही धर्म है अतः जो-जो धर्म कार्य करना वह जिनाज्ञा प्रमाण 45
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy