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SIMILIAMVATI
MIMINAMITAMITAMITALIVAN
जिनधर्म का आचरण करना, साधन करना
और प्रभावना करनी तो दूर ही रहो, एक जिनधर्म का श्रद्धान करना ही तीव्र दुःखों का नाश कर देता है इसलिए जिनधर्म धन्य है।
सच्चे देव व शास्त्र का निमित्त मिलने पर भी उनके स्वरूप का निर्णय नहीं कर सकने के कारण जीव ने यथार्थ जिनधर्म को नहीं पाया सो यह उसके तीव्र पाप का ही उदय है।
व्यवहार है सो निश्चय का साधक है अतः शास्त्राभ्यास रूप व्यवहार से परमार्थ रूप वीतराग धर्म की प्राप्ति होती है-ऐसा जानना।
DNITAMILITAMILNIVAALAALAAILAAMILAAMITALI/LL