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मिथ्यात्व का उदय है उनको कुछ भी नहीं भासता ।।८०।। (१२) जो कोई जिनराज की पूजा के अवसर में श्रद्धावान जीवों को करोड़ों का धन दे तो भी वे उस असार धन को छोड़कर सारभूत जिनराज की पूजा ही करते हैं | |८९ ।। (१३) जिसका जो गुण होता है उसकी सेवा करने से उसी गुण की प्राप्ति होती है-ऐसा न्याय है। अरहन्त का स्वरूप ज्ञान-वैराग्यमय है उनकी पजा. ध्यान एवं स्मरणादि करने पर ज्ञान-वैराग्य रूप सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति होती है और हरिहरादि देवों का स्वरूप काम-क्रोधादि विकारमय है उनकी पूजादि करने से मिथ्यात्वादि पुष्ट होते ही होते हैं-ऐसा जानना ।।१०।। (१४) जो पुरुष शुद्ध जिनधर्म का उपदेश देता है वह ही लोक में प्रकटपने परमात्मा है अन्य धन-धान्यादि पदार्थों को देने वाला नहीं। क्या कल्पवृक्ष की बराबरी अन्य कोई वृक्ष कर सकता है, कदापि नहीं। ऐसा परमात्मा जयवन्त हो ! ||१०१।। (१५) धर्म की उत्पत्ति के मूल कारण तो जिनेन्द्रदेव और उनके वचन आदि हैं, इनके सिवाय अन्य कुदेवादि तो पाप के स्थान हैं जिनसे मैं स्वयं को तथा दूसरों को वर्जित करता हूँ ।।१०३ ।। (१६) जिन जिनेन्द्रदेव को तुम प्रीतिपूर्वक वंदते-पूजते हो उन ही के वचनों की अवहेलना करते हो अर्थात् उनके वचनों में कहे हुए को मानते नहीं हो तो फिर उन्हें तुम क्या वंदते-पूजते हो ! ||१३१।। (१७) लोक में भी ऐसा सुनने में आता है कि जो जिसकी आराधना या सेवा करता है वह उसकी आज्ञा प्रमाण चलता है और उसे कुपित नहीं करता सो यदि तुम भी जिनेन्द्र की पूजा-भक्ति करते हो और वांछित कार्य की सिद्धि चाहते हो तो पहिले उनके वचनों को मानो। भगवान की वाणी में कहा गया है कि जो राग-द्वेष सहित क्षेत्रपालादि हैं वे कुदेव हैं उन्हें सुदेव नहीं मानो सो इस जिन आज्ञा को प्रमाण करो।।१३२ ।। (१८) अरहंतादि वीतराग हैं उनके सेवन से मानादि कषायों की हीनता होती है परन्तु उसके द्वारा उल्टे मानादि का पोषण करने वाले जीवों का यह