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गाथा १५७
प्रभु के सर्वांग से झरते
ॐकार ध्वनि के वचन रूपी रत्न
हे प्रभु ! परम भाव से आपके चरणों में
प्रणाम करके * यह प्रार्थना करता हूँ कि 'आपके
।
वचन रूपी रत्नों को
ग्रहण करने का मुझे सदा अत्यन्त लोभ हो'__ ऐसी ग्रंथकार ने इष्ट प्रार्थना की है।
ग्रंथकार श्री नेमिचंद जी
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