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(१) धन्य हैं वे जीव जिन्होंने सांवत्सरिक एवं दशलक्षण
और अष्टान्हिका आदि चातुर्मासिक धर्मपर्यों का विधान किया क्योंकि महारंभी जीव भी इन पर्यों में जिनमन्दिर जाकर धर्म का सेवन करते हैं | |गाथा २६ ।। (२) धन्य हैं वे जीव जिनकी सहायता से जिनधर्मी धर्म का सेवन करते हैं और जो शास्त्राभ्यास आदि भला आचरण करने वाले जीवों को सदाकाल धर्म का आधार देकर उनका निर्विघ्न स्वाध्याय आदि होता रहे ऐसी सामग्री का मेल मिलाते हैं । ।५२-५३।। (३) धन्य हैं वे जीव जिन्हें नरकादि के दुःखों का स्मरण करते हुए मन में हरिहरादि की ऋद्धि और समृद्धि के प्रति भी उदासभाव ही उत्पन्न होता है।।९५।। (४) धन्य हैं वे जीव और वे ही भाग्यवान हैं जिन्हें कहा हुआ जो शुद्ध जिनधर्म का स्वरूप वह आनन्द उत्पन्न करता है।।११३।। (५) धन्य हैं वे जीव जो संसार से भयभीत होते हुए धन
और राज्यादि के कारणभूत उन व्यापारों का जो कि निश्चय से अत्यंत पाप सहित हैं, त्याग करते हैं । ।११९ ।। (६) धन्य हैं वे जीव जिन भाग्यवानों का ऐसे पंचम काल के दंड सहित लोक में भी जिसमें कि सम्यक्त्व बिगड़ने के अनेक कारण बन रहे हैं, सम्यक्त्व चलायमान नहीं होता, उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ।।१३३ ।। (७) धन्य हैं वे जीव जिन भाग्यवान कृतार्थ जीवों को पुण्य के उदय से शुद्ध गुरु मिलते हैं। सच्चे गुरु का मिलना सहज नहीं है, जिनकी भली होनहार होती है उनको ही गुरुओं का संयोग मिलता है ।।१३५ ।।
धन्य धन्य
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