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________________ उपदेश सिद्धान्त श्री रत्नमाला श्रा नेमिचंद भंडारी कृत भव्य जीव - भावार्थः- परिग्रहधारी कुगुरु के निमित्त से बुद्धिमानों की मी नेमिचंद जी भी बुद्धि चलायमान हो जाती है अतः कुगुरुओं का निमित्त सय मिलाना योग्य नहीं है ||१४१ ।। मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि में अन्तर जाणिज्ज मिच्छदिट्ठी, जे पडणालंबणाई गिण्हति। जे पुण सम्मादिट्ठी, तेसिं मणो चडण पयडीए।।१४२।। अर्थः- जो जीव 'पतनालम्बन' अर्थात् नीचे गिरने रूप आलंबन को ग्रहण करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं-ऐसा तू जान और जिनका मन ऊपर चढ़ने रूप सीढ़ी में रहता है वे सम्यग्दृष्टि हैं ।। भावार्थ:- जिन जीवों को अणुव्रत–महाव्रतादि रूप ऊपर की दशा का त्याग करके निचली दशा रुचिकर होती है वे मिथ्यादृष्टि ही हैं तथा सम्यक्त्वादि ऊपर का धर्म धारण करने का जिनका भाव है वे सम्यग्दृष्टि हैं-ऐसा जानना ||१४२ ।। टि०-१. सागर प्रति में इस गाथा का भावार्थ इस प्रकार है:भावार्थ:- जो जीव महाव्रत धारण करके धन-धान्यादि परिग्रह रखना आदि निचली अवस्था का आचरण करते हैं और अपने को गुरु-महन्त मनवाकर भोले जीवों से पुजवाते हैं वे मिथ्यादृष्टि जीव पत्थर की नाव के समान हैं और जो जीव सत्यार्थ देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा करके अणुव्रत आदि को धारण करने के भाव रखते हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं।
SR No.009487
Book TitleUpdesh Siddhant Ratanmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Bhandari, Bhagchand Chhajed
PublisherSwadhyaya Premi Sabha Dariyaganj
Publication Year2006
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size540 MB
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