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श्री नेमिचंद जी
उपदेश सिद्धान्त
रत्नमाला
नेमिचंद भंडारी कृत
सम्यक्त्व बिना सारा आचरण फलीभूत नहीं सव्वंगं पि हु सगडं, जह ण चलइ इक्क वडहिला रहिअं । तह धम्म-फडाडोवं, ण फलइ सम्मत्त-परिहीणं । । ११६ । । अर्थः- जिस प्रकार प्रकटपने सर्व अंगों के विद्यमान होने पर भी एक धुरी बिना गाड़ी नहीं चलती उसी प्रकार सम्यक्त्व के बिना धर्म का बड़ा आडंबर भी फलीभूत नहीं होता इसलिये व्रतादि धर्म सम्यक्त्व सहित ही धारण करना योग्य है - यह तात्पर्य है । । ११६ । ।
अज्ञानियों पर ज्ञानियों का रोष नहीं होता
ण मुणंति धम्मतत्तं, सत्थं परमत्थगुणं हियं-अहियं । बालाण ताण उवरिं, कह रोसो मुणिय धम्माणं । । ११७ । । अर्थः- जो अज्ञानी जीव धर्म के स्वरूप को नहीं जानते तथा परमार्थ गुण रूप हित और अहित को नहीं जानते उनके ऊपर जिनधर्म का रहस्य जानने वाले ज्ञानी जीवों का रोष कैसे हो अर्थात् नहीं होता ।।
भावार्थ:- ज्ञानी जीव जानते हैं कि 'मिथ्यादृष्टि जीव धर्म का स्वरूप जानते ही नहीं हैं' फिर वे ऐसे अज्ञानी जीवों पर रोष कैसे करें अर्थात् नहीं करते, मध्यस्थ ही रहते हैं | | ११७ ।।
आत्म-वैरी की पर पे करुणा कैसे हो
अप्पा वि जाण वयरी, तेसिं कह होइ परजिये करुणा । घोराण वंदियाणय, दिट्टे ते ण य मुणेयव्वं' । । ११८ । ।
१. टि०—'वंदियाणय' व 'मुणेयव्वं' की जगह 'वंदियालय' व 'मुंचेयव्वं' शब्द उचित हो रहे हैं।
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भव्य जीव