________________
अथवा ऐसा एकादशी व्रत जिसमें कंदमूलादि का भक्षण व रात्रिभक्षण हो इत्यादि मिथ्यात्व के पर्व जिसने रचे उसका नाम भी पापबंध का कारण है क्योंकि उन मिथ्या पर्यों के प्रसंग से धर्मात्माओं के भी पापबुद्धि होती है।
मंदिर जी के द्रव्य से व्यापार करना और उधार लेकर उससे आजीविका करने का निषेध है। वे लिखते हैं कि जिनद्रव्य जो चैत्यालय का द्रव्य उसे जो पुरुष अपने प्रयोग में लेते हैं वे जिनाज्ञा से पराङ्मुख अज्ञानी मोह से संसार समुद्र में डूबते हैं। लक्ष्मी को उन्होंने दो प्रकार का कहा है-एक तो लक्ष्मी पुरुषों के भोगों मे लगने से पाप के योग से सम्यक्त्वादि गुण रूप ऋद्धि का नाश करती है और एक लक्ष्मी दान-पूजा में लगने से पुण्य के योग से सम्यक्त्वादि गुणों को हुलसायमान करती
है अतः पात्रदानादि धर्मकार्य में जो धन लगता है वह सफल है। ___ यह संसार महा दुःखों का सागर है। यदि संसार में सुख होता तो तीर्थंकरादि
बड़े पुरुष इसको क्यों त्यागते और इस संसार में पर्यायदृष्टि से कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है इसलिए शरीरादि के लिए वृथा पाप का सेवन करना और आत्मा का कल्याण नहीं करना-यह मूर्खता है। जो जीव नष्ट हुए पदार्थों का शोक करके ऊँचे स्वर से रोते हुए सिर और छाती कूटता है वह अपनी आत्मा को नरक में पटकता है। ऐसा वस्तुस्वरूप ही है कि जो पर्याय व्यतीत हो गई वह फिर नहीं आती अतः शोक में कुछ सार नहीं है। वह एक तो वर्तमान में दुःख रूप है और दूसरे आगामी नरकादि दुःखों का कारण है। इस संसार के सारे दुःखों से बचने का उपाय जिनमार्ग में चलना ही है और इस शुद्ध जिनमार्ग में जन्म लेने वाले जीव तो सुखपूर्वक शुद्ध मार्ग में चलते ही हैं और उन्हें चलना ही चाहिए परन्तु जिन्होंने अमार्ग में जन्म लिया है और मार्ग में चलते हैं सो आश्चर्य है।
इस ग्रंथ की हमारे पास एक तो मराठी अनुवादयुक्त हिन्दी की जीर्ण-शीर्ण प्रति थी जो आज से १०४ वर्ष पूर्व नागपुर की गोरक्षण प्रेस से वर्धा निवासी 'श्री जयचन्द्र श्रावणे जैन' ने छपवाई थी जिसकी प्रस्तावना को पाठकों के लिए उपयोगी जानकर अभी इस लेख से पहले प्रकाशित कर चुके हैं। दूसरी प्रति श्री मन्नूलाल जी जैन, सागर के द्वारा सम्पादित, सागर से ही प्रकाशित थी सो
DOOOOD0000000 00000000000