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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
इस प्रकार जो ग्यारह अंग हैं उनके पदों की संख्या का जोड़ देने पर 'चार करोड़, पंद्रह लाख, दो हजार' पद होते हैं ।
(१२) बारहवां 'द ष्टिवाद' नामक अंग है जिसमें मिथ्यादर्शन संबंधी जो 'तीन सौ तरेसठ' कुवाद हैं उनका वर्णन है। इसके एक सौ आठ करोड़, अड़सठ लाख, छप्पन हजार, पांच' पद हैं।
इस बारहवें अंग के ये पांच अधिकार हैं - १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका ।
(१) ‘परिकर्म' में गणित के करणसूत्र हैं जिसके ये पांच भेद हैं :
१. पहला ‘चन्द्रप्रज्ञप्ति' है जिसमें चन्द्रमा के गमनादि तथा परिवार, ऋद्धि, व द्धि,
हानि और ग्रहण आदि का वर्णन है। इसके पद 'छत्तीस लाख, पांच हजार' हैं। २. दूसरा 'सूर्यप्रज्ञप्ति' है जिसमें सूर्य की ऋद्धि, परिवार और गमन आदि का वर्णन है। इसके पद पांच लाख, तीन हजार' हैं।
३. तीसरा ‘जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति' है जिसमें जंबूद्वीप संबंधी मेरु, गिरि, क्षेत्र और कुलाचल आदि का वर्णन है। इसके पद 'तीन लाख, पच्चीस हजार' हैं । ४. चौथा ‘द्वीपसागरप्रज्ञप्ति' है जिसमें द्वीप और सागर का स्वरूप, वहाँ स्थित ज्योतिषी, व्यंतर और भवनवासी देवों के आवास तथा उनमें विद्यमान जिनमंदिरों
का वर्णन है । इसके पद 'बावन लाख, छत्तीस हजार' हैं ।
५. पांचवां ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति' है जिसमें जीव-अजीव पदार्थों के प्रमाण का वर्णन है । इसके पद 'चौरासी लाख, छत्तीस हजार' हैं।
इस प्रकार परिकर्म के पांच भेदों के पद जोड़ने पर एक करोड़, इक्यासी लाख, पांच हजार होते हैं।
(२) बारहवें अंग का दूसरा भेद 'सूत्र' नामक है उसमें मिथ्यादर्शन संबंधी जो 'तीन सौ तरेसठ' कुवाद हैं उनका पूर्व पक्ष लेकर उन्हें जीव पदार्थ पर लगाने आदि का वर्णन है। इसके पद 'अट्ठासी लाख' हैं ।
(३) बारहवें अंग का तीसरा भेद 'प्रथमानुयोग' है जिसमें प्रथम जीव को उपदेश
योग्य तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन है। इसके पद 'पांच हजार' हैं।
(४) बारहवें अंग का चौथा भेद 'पूर्वगत' है उसके ये चौदह भेद हैं :
१. प्रथम पूर्व ‘उत्पाद' नाम का है उसमें जीव आदि वस्तुओं का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य
२-१०
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