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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
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उत्थानिक
स्वामी विरचित
सो प्रथम ही श्री कुन्दकुन्द आचार्य सूत्र की महिमा गर्भित सूत्र का स्वरूप'
बताते है :
अरहंतभासियत्थं सुत्तत्थमग्गणत्थं
गणहरदेवे हिं सवणा
हं
अरहंत भाषित अर्थमय, गणधर सुविरचित सूत्र जो ।
सूत्रार्थ मार्गण हेतु युत, परमार्थ उससे साधे मुनि । । १ । ।
गंथियं
सम्मं ।
परमत्थं ।। १।।
अर्थ
जो गणधर देवों ने सम्यक् प्रकार अर्थात् पूर्वापर विरोध रहित गूंथा - रचा सो सूत्र
है । कैसा है सूत्र - अरिहंत देव घातिया कर्मों का नाश करके सर्वज्ञ हुए उनके द्वारा जिसमें अर्थ भाषित है । और कैसा है -सूत्र का जो कुछ अर्थ है उसका
'मार्गण' अर्थात खोजना, जानना ही जिसमें प्रयोजन है। ऐसे सूत्र के द्वारा श्रमण
अर्थात् मुनि हैं वे परमार्थ अर्थात् उत्कृष्ट अर्थ-प्रयोजन जो अविनाशी आनन्दमय
मोक्ष उसको साधते हैं। यहाँ 'सूत्र' ऐसा विशेष्य पद गाथा में नहीं कहा फिर भी विशेषणों की सामर्थ्य से लिया है ।
भावार्थ
जो १. अरिहंत सर्वज्ञ से तो भाषित है २ . गणधर देवों के द्वारा अक्षर - पद - वाक्यमयी
गूंथा गया है और ३. सूत्र के अर्थ को जानने का ही जिसमें अर्थ अर्थाथ प्रयोजन है-ऐसे सूत्र से मुनि परमार्थ जो मोक्ष उसको साधते हैं। अन्य अक्षपाद, कणाद, जैमिनी, कपिल तथा सुगत आदि छद्मस्थों के द्वारा रचे हुए जो कल्पित सूत्र उनसे परमार्थ की सिद्धि नहीं है - ऐसा आशय जानना । । १ । ।
हैं
उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'सूत्र का जो ऐसा अर्थ आचार्यों की परम्परा से वर्तता है उसको जानकर जो मोक्षमार्ग को साधता है वह भव्य है' :
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