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यह पाहुड़ चालीस गाथाओं में निबद्ध है। प्रारम्भ में ही आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि शील में और ज्ञान में विरोध नहीं है। शील बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं, उसे मिथ्यात्व, रागद्वेष और अज्ञान रूप कर देते हैं। प्रथम तो ज्ञान बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होता है और फिर ज्ञान होने पर भी ज्ञान का बारम्बार अनुभव करना और विषयों से विरक्त होना उत्तरोत्तर बहुत ही कठिनाई से होता है। विषय ज्ञान के वैरी हैं अतः विषयों का त्यागना ही सुशील है। इस जीव की जब तक विषयों में प्रवत्ति होती है तब तक यह ज्ञान को जानता नहीं और ज्ञान को जाने बिना विषयों से विरक्त भी हो तो भी कर्मों का क्षय नहीं कर पाता। इस प्रकार मार्ग का बोध कराते हुए उन्होंने कहा है कि ज्ञान को जानकर, विषयों से विरक्त होकर ज्ञान की बारबार अनुभव रूप भावना करे तो तप और गुणों से युक्त होता हुआ वह संसार को छेदता है-ऐसे शीलसहित ज्ञान रूप मार्ग है। इस मार्ग से जीव वैसे ही शुद्ध होता है जैसे सोने, सुहागे और नमक के लेप से निर्मल कांतियुक्त विशुद्ध होता है। ज्ञान को पाकर जीव विषयासक्त हो तो यह ज्ञान का दोष नहीं, उस कुपुरुष का ही दोष है। शील ही तप है, शील ही ज्ञान व दर्शन की शुद्धि है, शील ही विषयों का शत्रु है और शील ही मोक्ष की पैड़ी है। शील से ही आत्मा सुशोभित होता है।
आगे आचार्य देव ने कहा है कि मोहरा, सोमल आदि स्थावर का विष और सर्प आदि जंगम का विष-इन सारे ही विषों में विषयों का विष अति तीव्र ही है क्योंकि इन विषों की वेदना से हते हुए जीव तो एक जन्म में मरते हैं पर विषय रूपी विष से ह गए जीव संसार रूपी वन में अतिशय ही भ्रमते हैं। विषयासक्त जीव नरक आदि चारों गतियों में दुःख ही दुःख पाते हैं। शीलवान पुरुष विषयों को खल के समान छोड़ देते हैं, किंचित् भी खेद नहीं करते। विषयों के रागरंग से आप ही जीव ने कर्म की गाँठ बाँधी है, उसको क तार्थ पुरुष स्वयं ही तप, संयम एवं शील आदि गुणों के द्वारा खोलते हैं । शील बिना कोरे ज्ञान से न तो मोक्ष मिलता है और न ही भाव की निर्मलता होती है । जिन्होनें जिनवचनों से सार ग्रहण किया है-ऐसे विषयों से विरक्त एवं धीर तपोधन शील रूपी जल से नहाकर, शुद्ध होकर सिद्धालय के सुखों को पाते हैं।
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शील स्वभाव को कहते हैं सो आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञानदर्शनमयी चेतनास्वरूप है, वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप-मिथ्यात्व, कषाय रूप परिणमन कर रहा है, सो इस कुशीलता के मिटने पर सम्यक्त्व व वीतरागता रूप परिणमन युक्त शील की प्राप्ति होवे तो मोक्ष की प्राप्ति हो-यह शीलपाहुड़ का सार संक्षेप है।