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अष्ट पाहु
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स्वामी विरचित
• आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे शील का रूप तथा उससे गुण होता है सो कहते हैं:सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुहेहिं णिद्दिवो। णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति।।२।। है शील एवं ज्ञान में ना, विरोध बुध निर्दिष्ट यह। पर विषय नाशें शीलविरहित, ज्ञान को है विशेष यह ।।२।।
अर्थ शील में और ज्ञान में ज्ञानियों ने विरोध नहीं कहा है। ऐसा नहीं है कि जहाँ शील हो वहाँ ज्ञान न हो और जहाँ ज्ञान हो वहाँ शील न हो तथा यहाँ जो ‘णवरि' अर्थात् विशेष है सो कहते हैं-शील बिना 'विषय' अर्थात् इन्द्रियों के जो विषय हैं वे ज्ञान का विनाश करते हैं, उसे नष्ट करते हैं अर्थात् मिथ्यात्व, रागद्वेषमय-अज्ञान रूप करते है।
भावार्थ यहाँ ऐसा जानना कि 'शील' नाम स्वभाव का-प्रक ति का प्रसिद्ध है सो आत्मा का सामान्य से ज्ञान स्वभाव है जिस ज्ञान स्वभाव में अनादि कर्म के संयोग से मिथ्यात्व एवं राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं सो यह ज्ञान की प्रक ति 'कुशील' नाम पाती है, इस प्रक ति से संसार उत्पन्न होता है इसलिए इसको 'संसार प्रक ति' कहते हैं, अज्ञान रूप कहते हैं, इस प्रक ति से संसार पर्याय में अपनापना मानता है तथा परद्रव्यों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि करता है तथा यह प्रक ति पलटती है तब मिथ्यात्व का अभाव कहा जाता है तब संसार पर्याय में अपनापना नहीं मानता तथा पर द्रव्यों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं होती और इस भाव की पूर्णता नहीं होती तब तक चारित्रमोह के उदय से कुछ राग-द्वेष रूप कषाय परिणाम उत्पन्न होते हैं जिनको कर्म का उदय जानता है, उन भावों को त्यागने योग्य जानता है, त्यागना चाहता है-ऐसी प्रक ति हो तब सम्यग्दर्शन रूप भाव कहलाता है, इस सम्यग्दर्शन भाव से ज्ञान भी सम्यक् नाम पाता है,
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