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________________ ●業業業業業業業業業業業業業5 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ उत्थानिका प्रथम ही श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रंथ की आदि में इष्ट को नमस्कार रूप मंगल करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा करते हैं —— विसालणयणं स्वामी विरचित वीरं तिविहेण पणमिऊणं विस्तीर्ण नयन हैं वीर, अम्बुज रक्त कोमल चरणयुत । करके मैं त्रिविध प्रणाम उनको, शील गुण को कहूँगा । । १ । । रत्तुप्पलको मलस्समप्पायं । अर्थ आचार्य कहते हैं कि मैं 'वीर' अर्थात् अंतिम तीर्थंकर जो श्री वर्द्धमान स्वामी, परम भट्टारक, उनको मन-वचन-काय से नमस्कार करके और 'शील' जो निजभाव रूप प्रक ति उसके गुणों को अथवा शील और सम्यग्दर्शनादि गुणों को कहूँगा । कैसे हैं 卐糕糕卐 णिसामेह । । १ । । श्री वीर वर्द्धमान स्वामी - विशालनयन हैं, जिनके बाह्य में तो पदार्थों को देखने को नेत्र विशाल हैं, विस्तीर्ण हैं, सुन्दर हैं और अन्तरंग में केवलदर्शन, केवलज्ञान रूप नेत्र समस्त पदार्थों को देखने वाले हैं। और वे कैसे हैं- 'रक्तोत्पलकोमलसमपाद’ ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा की है । । १ । । अर्थात् रक्त कमल के समान कोमल जिनके चरण हैं, वैसे अन्य के नहीं हैं इसलिए सबके द्वारा सराहने योग्य हैं, पूजने योग्य हैं। इसका दूसरा अर्थ ऐसा भी होता है कि ‘रक्त' अर्थात् राग रूप आत्मा के भाव को 'उत्पल' दूर करने में 'कोमल' और ‘सम' अर्थात् कठोरतादि दोष और राग-द्वेष रहित हैं 'पाद' अर्थात् वाणी के पद जिनके अर्थात् कोमल हित- मित- मधुर और रागद्वेष रहित उनके वचन प्रवर्तते हैं जिनसे सबका कल्याण होता है। भावार्थ इस प्रकार वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार रूप मंगल करके आचार्य ने शीलपाहुड़ ८-७ 業業業業業業業業業業業業業 專業版
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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