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________________ D अष्ट पाहुड़sta स्वामी विरचित o आचार्य कुन्दकुन्द -Doc/N BLOOT Dooli TOVAVALYAN MAHAMANAS OCE pan हैं तब तक स्थावर प्रतिमा कहलाती है। इस प्रकार स्थावर प्रतिमा कहने से तीर्थंकर का केवलज्ञान होने के पश्चात् अवस्थान बताया है और धातु-पाषाण की जो प्रतिमा रचकर स्थापित की जाती है वह इसका व्यवहार है।३५।। 崇崇崇崇崇崇崇明崇崇勇崇崇勇勇藥業禁禁禁 आगे कर्मों के नाश से मोक्ष प्राप्त होता है ऐसा कहते हैं:बारसविहतवजुत्ता कम्म खविऊण विहिबलेणस्सं । वोसट्टचत्तदेहाणिव्वाणमणुत्तरं पत्ता ।। ३६।। द्वादश तपों से युक्त हो, विधिवत् खिपाकर कर्म को। व्युत्सर्ग से तज देह को, पावें अनुत्तर मोक्ष को ।।३६ ।। अर्थ जो बारह प्रकार के तप से संयुक्त होते हुए विधि के बल से अपने कर्मों का नाश करके 'व्युत्स ष्टचत्त' अर्थात् न्यारा करके छोड़ दिया है देह जिन्होंने ऐसे होकर 'अनुत्तर' अर्थात् जिससे आगे अन्य अवस्था नहीं है ऐसी निर्वाण अवस्था को प्राप्त होते हैं। भावार्थ जो तप के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करके जब तक विहार करते हैं तब तक स्थित रहते हैं, पीछे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सामग्री रूप विधि के बल से कर्मों का क्षय करके व्युत्सर्ग के द्वारा शरीर को छोड़कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि जब निर्वाण को प्राप्त होते हैं तब लोक के शिखर पर जाकर स्थित होते हैं वहाँ गमन में एक समय लगता है उस समय जंगम प्रतिमा कही जाती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है, उनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है सो इस पाहुड़ में सम्यग्दर्शन के प्रधानपने का व्यारव्यान किया ।।३६ ।। 崇崇崇崇崇崇崇崇虽業業兼藥業兼崇崇勇崇勇 業業業業樂業籌器禁禁禁禁禁禁期
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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