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________________ ( अष्ट पाहुइ.sarat. स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द ADOG HDool. •Doo Dool* Des/ HDools Dost 崇崇崇崇崇明藥藥業業%崇崇崇明藥業崇崇崇勇 अर्थ जो लिंग धारण करके और इन क्रियाओं को करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा पाता है, दुःखी होता है वह लिंगी नरकवास को पाता है। वे क्रियायें कौन सी हैं? १.प्रथम तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र इनमें, इनका निश्चय–व्यवहार रूप धारण करना, २. तप'-अनशनादि बारह प्रकार इनको शक्ति के अनुसार करना, ३. संयम'-इन्द्रियमन को वश में करना एवं जीवों की रक्षा करना, ४.'नियम' अर्थात् नित्य कुछ त्याग करना तथा ५. नित्यकर्म' अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाओं को नियत समय पर नित्य करना ये लिंग के योग्य क्रियाएँ हैं, इन क्रियाओं को करता हुआ जो दुःखी होता है वह नरक पाता है। भावार्थ लिंग धारण करके ये कार्य करने थे उनका तो निरादर करता है, प्रमाद का सेवन करता है और लिंग के योग्य कार्य करता हुआ दुःखी होता है तब जानना कि इसके भावशुद्धि से लिंग ग्रहण नहीं हुआ और भाव बिगड़े तो उसका फल तो नरक ही होता है-ऐसा जानना।।११।। 崇勇兼功兼崇崇崇崇先崇勇兼崇勇兼勇崇勇攀事業蒸蒸男樂事業 00 उत्थानिका ena आगे कहते हैं कि 'जो भोजन में भी रसों का लोलुपी होता है वह भी लिंग को लजाता है' :कंदप्पाइय वट्टइ करमाणो भोयणेसु रसगिद्धिं । माई लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १२।। भोजन में रसग द्धि करे, व वर्ते कन्दर्पादि में। मायावी अरु व्यभिचारी वह, तिर्यंच योनि है, श्रमण नहिं।।१२।। अर्थ जो लिंग धारण करके भोजन में रस की 'ग द्धि' अर्थात् अति आसक्ति उसको करता हुआ वर्तता है वह कन्दर्प आदि में वर्तता है, काम के सेवन की वांछा तथा जबा७-१४), 藥業樂業樂業助業 樂業藥業崇明崇明業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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