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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
में ही चेष्टा रूप हैं-आत्मा की अवस्था हैं इसलिये मुझे आत्मा ही की शरण है, इस प्रकार आचार्य ने अभेदनय को प्रधान करके कहा है ।
भावार्थ
ये पाँच पद आत्मा ही के हैं १. जब यह आत्मा घातिकर्म का नाश करता है तब अरहंत पद होता है, २. यह ही आत्मा अघाति कर्मों का भी नाशकर जब निर्वाण को प्राप्त होता है तब सिद्ध पद कहलाता है, ३. जब दीक्षा - शिक्षा देनेवाला मुनि होता है तब आचार्य कहलाता है, ४. पठन-पाठन में तत्पर मुनि होता है तब उपाध्याय कहलाता है और ५. जब रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग को ही मात्र साधता है तब साधु कहलाता है-ऐसे ये पाँच पद आत्मा ही में हैं सो आचार्य विचार करते
हैं कि 'इस देह में आत्मा स्थित है सो यद्यपि कर्म से आच्छादित है तो भी पाँचों पदों के योग्य है। इस ही को शुद्धस्वरूप रूप ध्याने पर पाँचों पद का ध्यान होता है इसलिए मुझे इस आत्मा ही की शरण है' ऐसी भावना की है और पंच
परमेष्ठी का ध्यान रूप अंतमंगल बताया है ।।१०४ ।।
२ उत्थानिका
आगे कहते हैं कि 'अंत समाधिमरण में जो चार आराधना का आराधन कहा है
सो वह भी आत्मा ही की चेष्टा है इसलिये आत्मा ही की मुझे शरण है' :सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव ।
चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। १०५ । । सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, सच्चारित्र, सत्तपचरण जो ।
चारों ही स्थित आतमा में, अतः आत्मा मम शरण । । १०५ ।।
अर्थ
सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप- ये जो चार
चेष्टा रूप हैं, ये चारों आत्मा ही की अवस्था हैं
सम्यक्त्व और सम्यक् ज्ञान, आराधना हैं वे भी आत्मा में ही
इसलिये आचार्य कहते हैं कि मुझे आत्मा ही की शरण है ।
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