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________________ 卐糕卐卐卐業業卐業業卐業業 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित अर्थ हे भव्य जीवों ! तुम इस देह में ही स्थित ऐसा कुछ जो है उसे जानो। कैसा है वह–१. लोक में जो नमने योग्य इन्द्रादि हैं उनके द्वारा तो नमने योग्य है, २. जो ध्यान करने योग्य तीर्थंकर आदि परमेष्ठी हैं उनके द्वारा निरन्तर ध्याने योग्य है और ३. जो स्तुति करने योग्य तीर्थंकरादि हैं उनसे स्तुति करने योग्य है, ऐसा जो कुछ है सो इस देह ही में स्थित है उसको यथार्थ जानो । भावार्थ जो शुद्ध परमात्मा है वह यद्यपि कर्म से आच्छादित है तो भी वह भेदज्ञानियों के १. इस देह ही में स्थित, २. सर्व कर्म कलंक से रहित, ३. शाश्वत देव, ४. सत् चैतन्य आनन्दमयी और ५. अनुभवगोचर तिष्ठता है और उस ही का ध्यान करके तीर्थंकरादि भी मोक्ष पाते हैं इसलिये ऐसा कहा है कि लोक में जो नमने योग्य इन्द्रादि हैं और ध्यान करने योग्य एवं स्तुति करने योग्य तीर्थंकरादि हैं वे भी जिसको नमस्कार करते हैं और जिसका ध्यान एवं स्तुति करते हैं ऐसा जो कुछ वचन के अगोचर और भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर पदार्थ- परमात्म वस्तु है, उसका स्वरूप जानो, उसको नमस्कार करो और उसका ध्यान एवं स्तवन करो, बाहर क्यों ढूंढते हो-ऐसा उपदेश है । । १०३ । । उत्थानिका go आगे आचार्य कहते हैं कि 'जो अरहंतादि पंच परमेष्ठी हैं वे भी आत्मा ही में हैं इसलिये मुझे आत्मा ही की शरण है' : 麻卐卐糕蛋糕業業 अरुहा सिद्धायरिया उवज्झाय साहु पंचपरमेट्ठी । विहु चिट्ठइ आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। १०४ ।। अर्हंत, सिद्धाचार्य, पाठक, साधु जो परमेष्ठी पण । वे प्रकट स्थित आतमा में, अतः आत्मा मम शरण । । १०४ ।। अर्थ अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये जो पंच परमेष्ठी हैं वे भी आत्मा ६-८८ 卐卐卐] 卐糕糕卐
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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