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________________ 卐卐業業卐業卐業 卐業卐 आचार्य कुन्दकुन्द ● अष्ट पाहुड़ Mea स्वामी विरचित द ग्भ्रष्ट के द ग्धारी लज्जा, गर्व, भय से चरण पड़े। पापानुमोदन कारणे उसके भी बोधि अभाव हो । । १३ ।। अर्थ दर्शन सहित पुरुष यदि, जो दर्शनभ्रष्ट हैं उनको मिथ्याद ष्टि जानते हुए भी उनके पैरों में पड़ते हैं तथा उनकी लज्जा, भय और गारव से विनयादि करते हैं उनके भी बोधि अर्थात् दर्शन- ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि वे भी पाप जो मिथ्यात्व उसकी अनुमोदना करते हैं। करने, कराने और अनुमोदना करने को समान कहा है। यहाँ लज्जा तो इस प्रकार है कि 'जो हम किसी का विनय नहीं करेंगे तो लोग कहेंगे कि ये उद्धत हैं, मानी हैं इसलिए हमको तो सब ही का साधन करना - इस प्रकार लज्जा से दर्शनभ्रष्ट का भी विनयादि करे । भय ऐसा है कि यह राजमान्य है तथा मंत्र, विद्यादि की सामर्थ्य से युक्त है सो इसका विनय नहीं करेंगे तो कुछ हमारे ऊपर उपद्रव करेगा - इस प्रकार भय से विनय करे । गारव तीन प्रकार का ऐसे कहा है - १. रसगारव २. ऋद्धिगारव एवं ३. सातगारव । रसगारव तो ऐसा - जो मिष्ट, इष्ट एवं पौष्टिक भोजनादि मिला करे तब उससे प्रमादी रहे। ऋद्धि गारव ऐसा - जो कुछ तप के प्रभाव आदि से यदि ऋद्धि की प्राप्ति हो तो उसका गौरव आ जाए तब उससे उद्धत प्रमादी रहे। सात गारव ऐसा - यदि शरीर निरोग हो और कुछ क्लेश का कारण न आवे तब सुखियापन आ जाए और उसमें मग्न रहे इत्यादि गारवभाव की मस्ती से कुछ भले-बुरे का विचार न करे तब दर्शनभ्रष्ट का भी विनय करने लग जाए - इत्यादि निमित्त से यदि दर्शनभ्रष्ट का विनय करे तो इसमें मिथ्यात्व की अनुमोदना आती है, उसको भला जाने तब आप भी उसके समान हुआ तब उसके बोधि कैसे कही जाए ऐसा जानना । । १३ ।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'दर्शन की मूर्ति ऐसी होती है' 糕卐湯 १-३० 卐卐糕糕 - 【專業卐業 ń業業糝業業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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