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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द .000 NCE | NYOOCE -DA Dool अर्थ 'कंद' अर्थात् जमीकंद आदि; 'बीयं' अर्थात् बीज, चना आदि अन्नादि; 'मूल' अर्थात् अदरक, मूली गाजर इत्यादि; 'पुष्प' अर्थात् फूल एवं 'पत्र' अर्थात् नागरवेलि आदि-इनको आदि लेकर जो कुछ सचित्त वस्तु उसका मान से-गर्व से भक्षण किया उससे हे जीव ! तू अनंत संसार में भ्रमा। भावार्थ कन्दमूलादि सचित्त अनन्त जीवों की काय है तथा अन्य वनस्पति बीजादि सचित्त हैं उनका भक्षण किया। वहाँ प्रथम तो मान से कि 'हम तपस्वी हैं, हमारे घरबार नहीं, वन के पुष्प-फलादि खा करके तपस्या करते हैं-ऐसे मिथ्याद ष्टि तपस्वी होकर मान से खाया तथा गर्व से उद्धत होकर दोष गिना नहीं, स्वच्छंद हो सर्वभक्षी हुआ। ऐसे इन कंदादि को खाकर यह जीव संसार में भ्रमा, अब मुनि होकर इनका भक्षण मत कर-ऐसा उपदेश है और अन्यमत के तपस्वी कंदमूलादि फल-फूल खाकर अपने को महंत मानते हैं उनका निषेध है।।१०३।। 樂樂樂养%崇勇兼禁藥業業帶男崇勇禁藥事業兼藥業% 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे विनय आदि का उपदेश करते हैं, वहाँ प्रथम ही विनय की गाथा है : विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण। अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं ण पावंति।। १०४।। अविनीत नर क्योंकि सुविहित, सुमुक्ति को पाते नहीं। इसलिए पंच प्रकार विनय को, पाल मन-वच-काय से।।१०४।। अर्थ हे मुने ! जिस कारण से अविनयवान नर हैं वे भली प्रकार कथित जो मुक्ति उसको नहीं पाते हैं, अभ्युदय तीर्थंकरादि सहित मुक्ति नहीं पाते हैं इसलिए हम उपदेश करते हैं कि हाथ जोड़ना, पैरो में पड़ना, आने पर उठना, सामने जाना और अनुकूल वचन कहना-यह पंच प्रकार विनय अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और इनका धारक पुरुष-इनका विनय करना ऐसी पाँच प्रकार की विनय को तू मन, वचन, काय-इन तीनों योगों से पाल । 步骤業樂業禁藥 崇明崇明岛崇明藥業或業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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