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________________ अष्ट पाहुए . sarata स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द DOGY FDOG) FDod. ADeo DOC/ Des/ Dod Dool आत्मा को तो इच्छे नहीं, पर पुण्य करता अशेष जो। वह सिद्धि को पाता नहीं, संसारी ही है कहा गया ।।४६ ।। अर्थ जो पुरुष आत्मा को इष्ट नहीं करता अर्थात् उसका स्वरूप नहीं जानता और उसे अंगीकार नहीं करता परन्तु सब प्रकार के समस्त पुण्य को करता है तो भी उससे वह 'सिद्धि' अर्थात् मोक्ष को नहीं पाता। वह पुरुष संसार ही में स्थित रहता है। भावार्थ आत्मिक धर्म को धारण किए बिना यदि सब प्रकार के पुण्य का आचरण करे तो भी उससे मोक्ष नहीं होता, संसारी ही रहता है। कदाचित् स्वर्गादि के भोगों को भी पावे तो वहाँ भोगों में आसक्त होकर उनका सेवन करता है और फिर वहाँ से चय एकेन्द्रियादि होकर संसार ही में भ्रमण करता है।।8६ ।। 崇先添馬添先崇禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 先养养樂業禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁禁 आगे 'इस कारण से आत्मा ही का श्रद्धान करो और उसे प्रयत्न से जानो जिससे कि मोक्ष पाओ'-ऐसा उपदेश करते हैं :एएण कारणेण य तं अप्पा सद्दहेह तिविहेण । जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण।। 8७।। इन कारणों से करो आत्म, श्रद्धान मन-वच-काय से। उसको ही जानो प्रयत्न से, जिससे कि मुक्ति प्राप्त हो।।8७ ।। अर्थ पूर्व में बताया था कि 'आत्मिक धर्म से मोक्ष है' इस ही कारण से अब कहते हैं कि 'हे भव्य जीवों ! तुम उस आत्मा को 'प्रयत्न' अर्थात् सब प्रकार के उद्यम से यथार्थ जानो, उस आत्मा ही का श्रद्धान और प्रतीति करो, रुचि करो तथा आचरण करो। मन, वचन और काय से तुम ऐसा करो जिससे कि मोक्ष को पाओ।' 業坊業崇勇崇崇明藥業、崇崇崇崇崇崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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