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आचार्य कुन्दकुन्द
अष्ट पाहुड़
स्वामी विरचित
अन्त में संन्यासमरण करके वह ब्रह्म स्वर्ग में विद्युन्माली देव हुआ और वहाँ से
चयकर जम्बूकुमार हुए सो दीक्षा ले केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गए।
इस प्रकार भावमुनि शिवकुमार ने मोक्ष पाया। इनकी विस्तार सहित कथा
'जम्बूचारित्र' में है सो वहाँ से जानना । ऐसे भावलिंग प्रधान है । । ५१ । ।
उत्थानिका
आगे शास्त्र भी पढ़े परन्तु सम्यग्दर्शनादि रूप भावविशुद्धि न हो तो सिद्धि को नहीं पाता, इसका उदाहरण अभव्यसेन का कहते हैं :
केवलिजिणपण्णत्तं एयादसांग पुण्णसुदणाणं । पढिओ अभव्वसेणो ण भावसमणत्तणं पत्तो ।। ५२ ।।
टि0- 1. 'श्रु0 टी0' में यह गाथा, उसकी सं० छाया व टीकार्थ निम्न प्रकार हैंअंगाई दस य दुण्णि य चउदसपुव्वाई सयलसुयणाणं । पढ़िओ अ भव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।। 52 ।। अंगानि च द्वे च चतुर्दपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम्।
पठितच भव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः ।। 52 ।।
टीकार्थ-भव्यसेन मुनि बारह अंग तथा चौदह पूर्व रूप समस्त श्रुत का पाठी होने पर भी भावश्रमणत्व को प्राप्त न कर सका और जैन सम्यक्त्व के बिना अनन्त संसारी हुआ । भव्यसेन मुनि ने ग्यारह अंगों को तो शब्द तथा अर्थ दोनों रूप से पढ़ा तथा उसके बल से बारहवें अंग के चौदह पूर्वो को वह अर्थ
से जानता था, इसी से कुन्दकुन्द आचार्य ने उसे सकल श्रुत का पाठी कह दिया है ऐसा जानना चाहिए, अन्यथा सकल श्रुत को पढ़ने वाला पुरुष संसार में नहीं पड़ता - ऐसा आगम है ।
५-६१ 【卐卐業
'म0 टी0' में 'श्रु0 टी0' के गाथा के प्रथम पंक्ति के पाठ को अनुचित जानकर स्वीकार न करके 'केवलिजिणपण्णत्तं एयारसअंग सयलसुदणाणं पाठ को ही उचित जानकर लिया गया है। इसके अतिरिक्त 'श्रु० टी' में मुनि का नाम जहाँ 'भव्यसेन' है वहाँ 'मूल प्रति' में 'अभव्यसेन' है। इस भेद का कारण बताते हुए 'म0 टी0' में लिखा है कि "उन मुनि को दीक्षाकाल में दिया गया मूल नाम तो ‘भव्यसेन' था परन्तु उनका आगम विरुद्ध आचरण देखकर क्षुल्लक जी ने उनका नाम 'अभव्यसेन' रख दिया था। अतः दोनों ही पाठ उचित हैं ।" परन्तु प्रकरण की दष्टि से दोनों पर विचार करने पर 'अभव्यसेन' पाठ ही उन्हें अधिक उत्तम लगा है अत: 'म० टी०' में उन्होंने इसे ही स्वीकार किया है।
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