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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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आगे कहते हैं कि 'हे जीव ! उन रोगों का दुःख तूने सहा' :ते रोया वि य सयला सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस! किं वा बहुएहिं लविएहिं।। ३8 ।। हे महायश ! वे रोग सारे, सहे परवश पूर्व भव । आगे भी ऐसे ही सहेगा तू , बहुत कहने से क्या हो ।।३8 ।।
अर्थ
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हे महायश ! हे मुने ! बहुत कहने से क्या ! ये पूर्वोक्त सारे रोग पूर्व भव में तूने परवश सहे और ऐसे ही फिर भी सहेगा।
भावार्थ यह जीव पराधीन हुआ तो सारे दुःख सहता है परन्तु यदि ज्ञानभावना करे और दुःख आने पर उससे न चिगे-ऐसे उन दुःखों को स्ववश सहे तो कर्मों का नाश करके मुक्त हो जाये-ऐसा जानना।।३४।।
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आगे कहते हैं कि 'यह जीव अपवित्र गर्भवास में भी बसा' :
फेफस कालिज्जय रुहिर खरिस किमिजाले। उयरे वसिओसि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं ।। ३ ।। पितान्त्र, फेफस, मूत्र, आंव, यक त, रुधिर, क मिजालयुत। जननी उदर में तू रहा, चिरकाल नौ-दस मास तक ।।३9 ।।
अर्थ हे मुने ! तू स्त्री के मलिन अपवित्र उदर को प्राप्त करके नौ अथवा दस मास फ़ तक वहाँ बसा। कैसा है वह उदर-जो पित्त और आंतों से वेष्ठित है और जिसमें | 崇明崇崇崇崇明藥業騰飛崇明崇明崇崇明業