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अष्ट पाहुstrata
स्वामी विरचित
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आचार्य कुन्दकुन्द
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बार निगोद में जन्म-मरण होता है, उसके दुःख यह प्राणी सम्यग्दर्शन भाव को पाए बिना मिथ्यात्व के उदय के वशीभूत हुआ सहता है ||२8 ।।
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आगे इस ही अन्तर्मुहूर्त के जन्म-मरण में क्षुद्रभव का विशेष कहते हैं :
वियलिदिए असीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह। पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतोमहत्तस्स।। २७।।।
तू जान अस्सी-साठ-चालीस, क्षुद्र भव विकलेन्द्रि के। पंचेन्द्रि के चौबीस हों, अन्तर्मुहूरत काल में ।।२।।
अर्थ अन्तर्मुहूर्त के इन भवों में दो इन्द्रिय के अस्सी, तीन इन्द्रिय के साठ, चार इन्द्रिय के चालीस और पंचेन्द्रिय के चौबीस-इतने हे आत्मन् ! तू क्षुद्रभव जान।
भावार्थ अन्य शास्त्रों में क्षुद्रभव ऐसे गिने हैं-प थ्वी, अप, तेज, वायु और साधारण निगोद के सूक्ष्म-बादर की अपेक्षा से दस और सप्रतिष्ठित वनस्पति एक-ऐसे ग्यारह स्थानों के भव तो एक-एक के छह हजार बारह-छह हजार बारह सो 'छियासठ हजार एक सौ बत्तीस' हुए तथा जो इस गाथा में कहे वे भव दो इन्द्रिय आदि के 'दो सौ चार'-इस प्रकार एक अन्तर्मुहूर्त में 'छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस' क्षुद्र भव कहे गए हैं ।।२७।।
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टि0-1. मु0 प्रति' में भावार्थ में आगे यह पंक्ति और मिलती है जो मूल प्रति' में नहीं है-'भावार्थ
ऐसा-जो अंतर्मुहूर्तमें छियासठि हजार तीन सौ छत्तीस' बार जन्म-मरण कह्या सो अठ्यासी
वास घाटि मुहूर्त-ऐसा अन्तर्मुहूर्तविष जाननां ।' | 崇明崇崇崇崇明藥業、崇崇崇崇明崇崇明業