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अष्ट पाहुए .
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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भावार्थ इस संसार में प्राणी की आयु तिर्यंच एवं मनुष्य पर्याय में अनेक कारणों से छिदती है जिससे कुमरण होता है, उससे मरते समय तीव्र दुःख होता है तथा खोटे परिणामों से मरण करके फिर-फिर दुर्गति ही में पड़ता है-इस प्रकार यह जीव संसार में महादुःख पाता है इसलिए आचार्य दयालु होकर उन दुःखों को बार-बार प्रकट करके दिखाते हैं और संसार से मुक्त होने का उपदेश करते हैं-ऐसा जानना।।२५-२७।।
उत्थानिका आगे निगोद के दुःखों को कहते हैं :छतीसं तिण्णि सया छावट्टि सहस्सवारमरणाणि। अंतोमहत्तमज्झे पत्तोसि णिगोयवासम्मि।। २8।।
अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल विर्षे, निगोद के वास' में। छियासठ सहस अरु तीन सौ, छत्तिस मरण पाए अरे।।२8 ।।
अर्थ हे आत्मन् ! तू निगोद के वास में एक अन्तर्मुहूर्त में छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार मरण को प्राप्त हुआ।
भावार्थ निगोद में एक श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण आयु पाता है, वहाँ एक मुहूर्त में 'सैंतीस सौ तिहत्तर' श्वासोच्छवास माने गए हैं, उनमें 'छत्तीस सौ पिचासी' श्वासोच्छवास और एक श्वास के तीसरे भाग में 'छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस'
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टि0-1.आगम में निगोद' ब्द एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों के साधारण भेद में रूढ़ है परन्तु यहाँ
पर निगोदवास' में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सम्मूर्च्छन लब्ध्यपर्याप्तक जीवों के अन्तर्मुहूर्त में होने वाले जन्म-मरण का ग्रहण किया गया है।
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