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________________ ANY 「業業業 卐業業卐業卐業業業業業 आचार्य कुन्दकुन्द अष्ट पाहुड़ स्वामी विरचित तो सच्चा मुनि श्रावक होता है इसलिए भावलिंग ही प्रधान है और जो प्रधान है सो ही परमार्थ है अतः द्रव्यलिंग को परमार्थ नहीं जानना ऐसा उपदेश किया है। यहाँ कोई पूछता है-भाव का स्वरूप क्या है ? उसका समाधान-भाव का स्वरूप तो आचार्य आगे कहेंगे ही तथापि यहाँ भी कुछ कहते हैं- 'इस लोक में छह द्रव्य हैं जिनमें जीव और पुद्गल का प्रवर्तन प्रकट देखने में आता है। उनमें जीव तो चेतनास्वरूप है और पुद्गल स्पर्श, रस, गंध एवं वर्ण रूप जड़स्वरूप है, इनका अवस्था से अवस्थांतर रूप होना ऐसे परिणाम को भाव कहते हैं। सो दर्शन - ज्ञान तो जीव का स्वभाव परिणाम रूप भाव है और पुद्गल कर्म के निमित्त से ज्ञान में मोह-राग-द्वेष होना विभाव भाव है तथा पुद्गल का स्पर्श से स्पर्शान्तर और रस से रसांतर इत्यादि गुण से गुणांतर होना तो अग्रत व अतप से होने वाले नरक के दुःख नहीं होने चाहिएं वे श्रेष्ठ नहीं। इन दोनों में बड़ा भेद है।' पं0 जी ने गाथा का आय स्पष्ट किया है कि निर्वाण होने तक व्रत-तप आदिक DI में ही प्रवर्तना, इनसे सांसारिक सुख की प्राप्ति है और निर्वाण के साधने में भी ये सहकारी हैं। अव्रत और अतप-इन दुःखों के कारणों को सेवना तो बड़ी भूल है।' इसी प्रकार स्वर्ग और नरक के कारण शुभ व अशुभ उपयोग को यद्यपि अशुद्धता व बंध के कारण की अपेक्षा सिद्धान्त में समान दिखाया गया है परन्तु दोनों का परस्पर विचार करने पर अभ की अपेक्षा शुभ उपयोग को भला भी कहा है। शुद्धोपयोग का निमित्त व सहचारी होने से भोपयोग का सम्बन्ध तो युद्धोपयोग के साथ बैठता भी है परन्तु अभोपयोग का एकदम नहीं बैठता अत: गुभोपयोग के फल स्वर्ग को मोक्ष के साथ कहा । पं0 टोडरमल जी ने भी 'मोक्षमार्ग प्रकााक' के सातवें अधिकार में निचयाभासी मिथ्यादष्टि' के प्रकरण में भोपयोग व उससे होने वाले स्वर्ग और अभोपयोग व उससे होने वाले नरक में इस प्रकार भेद कहा है 【卐卐業 भोपयोग से स्वर्गादि होते हैं व भली वासना व भले निमित्तों से कर्म का स्थिति- अनुभाग घट जाए तो सम्यक्त्वादि की भी प्राप्ति हो जाती है और अशुभोपयोग से नरक- निगोदादि होते हैं व बुरी वासना व बुरे निमित्तों से कर्म का स्थिति अनुभाग बढ़ जाए तो सम्यक्त्वादि महा दुर्लभ हो जाते हैं अर्थात् भोपयोग से स्वर्ग में जाने वाला जीव स्वयं में भली वासना लेकर वहाँ गया और मोक्ष के भले निमित्त भी उसे वहाँ मिले तो कर्म के स्थिति अनुभाग घटने पर सम्यक्त्वादि की वहाँ तो सम्भावना है पर नरक में तो सम्यक्त्वादि के दुर्लभ ही होने की सम्भावना है अत: इस रूप में भी स्वर्ग का तो मोक्ष के साथ सम्बन्ध बैठा पर नरक का नहीं । ' ५-१६ 卐業業 wwww 【米米米米米米米米米米
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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