SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *業業業業業業業業出 आचार्य कुन्दकुन्द * अष्ट पाहड़ स्वामी विरचित क्योंकि मस्तक सब अंगों में उत्तम है तथा स्वयं नमस्कार किया तब अपने भावपूर्वक हुआ ही अतः मन-वचन-काय तीनों ही आ गए ऐसा जानना ।।१।। उत्थानिका आगे कहते हैं कि 'द्रव्य एवं भाव के भेद से लिंग दो प्रकार का है, उनमें भावलिंग परमार्थ है' 1 : भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विंति ।। २ ।। लिंगों में भाव ही प्रथम है, जो द्रव्य वह परमार्थ नहिं । गुण-दोष का कारण कहा है, भाव ही जिनदेव ने । । २ । । अर्थ भाव ही प्रथम लिंग है इस कारण हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग को परमार्थ रूप मत जान क्योंकि गुण और दोषों का कारणभूत भाव ही है - ऐसा जिन भगवान ने कहा है । भावार्थ गुण जो स्वर्ग–मोक्ष का होना और दोष जो नरकादि संसार का होना 2 - इनका कारण भगवान ने भाव ही को कहा है। क्योंकि जो कारण होता है वह कार्य के पहले प्रवर्तता है सो यहाँ भी मुनि श्रावक के द्रव्यलिंग के पहले यदि भावलिंग हो टि0- 1. मोक्षमार्ग में द्रव्य व भाव दोनों लिंगों की स्वीकारता की परन्तु भावलिंग को परमार्थ रूप, प्रथम व प्रधान कहा। द्रव्यलिंग परमार्थ नहीं परन्तु उसका व्यवहार है । व्यवहार परमार्थ के लिए होता है वा किया जाता है इसलिए परमार्थ ही तो प्रधान हुआ। 2. यहाँ ∫ांका होती है कि स्वर्ग तो संसार की ही एक गति है तो उसे गुण में और मोक्ष के साथ क्यों कहा, दोष में नरकादि संसार के साथ क्यों नहीं कहा?' समाधान यही प्रतीत होता है कि 'स्वर्ग और नरक दोनों ही यद्यपि संसार हैं परन्तु परस्पर में • तुलना करने पर नरक की अपेक्षा स्वर्ग को भला भी कहा।' इसी ग्रंथ में 'मोक्षपाहुड़' में पच्चीसवीं गाथा में कहा गया है कि 'व्रत और तप से होने वाला स्वर्ग श्रेष्ठ है परन्तु ५-१५ 麻卐 縑糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕糕 縢業 卐業卐業專業
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy