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अष्ट पाहुड़ata
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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कर्म के उदय से अनेक विचित्र अवस्थाएँ होती हैं, यदि मेरे ऐसा कर्म का उदय आ जाएगा तो मैं भी ऐसा ही हो जाऊँगा'-ऐसे विचार से उसके निर्विचिकित्सा अंग होता है।
(४) अमूढ़द ष्टि अंग-अतत्त्व में तत्त्व का श्रद्धान सो मूढ़द ष्टि है-ऐसी मूढ़द ष्टि जिसके न हो वह अमूढ़द ष्टि युक्त सम्यग्द ष्टि होता है। मिथ्याद ष्टियों के द्वारा जो खोटे हेतु और द ष्टान्त से साधा हुआ पदार्थ है वह सम्यग्द ष्टि को प्रीति नहीं उत्पन्न करता। सम्यग्द ष्टि के निम्न ये मूढ़ताएँ नहीं होती :लोकमूढ़ता-लौकिक रूढ़ि अनेक प्रकार की है सो यह निःसार है, निःसार पुरुषों के द्वारा ही आचरण की जाती है, अनिष्ट फल की देने वाली है, निष्फल है तथा खोटा उसका फल है तथा उसका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अर्थ नहीं है, जो कुछ लोकरूढ़ि चल पड़ती है उसका लोग आदर कर लेते हैं और फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है इत्यादि लोकमूढ़ता है।
देवादिमूढ़ता-अदेव में तो देवबुद्धि, अधर्म में धर्मबुद्धि और अगुरु में गुरुबुद्धि इत्यादि देवादि मूढ़ता है सो यह कल्याणकारी नहीं है। सदोष देव को तो देव मानना, उनके निमित्त हिंसादि करके अधर्म को धर्म मानना तथा मिथ्या आचारवान, शल्यवान, परिग्रहवान एवं सम्यक्त्च तथा व्रतरहित को गुरु मानना इत्यादि मूढ़द ष्टि के चिन्ह हैं। अब यहाँ देव, गुरु और धर्म का स्वरूप जानना चाहिए सो ही कहते हैं :देव का स्वरूप-रागादि दोष और ज्ञानावरणादि कर्म सो ही आवरण हैं-ये दोनों जिनके नहीं हैं वे देव हैं। उनके केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य-यह अनन्त चतुष्टय होता है सो १. सामान्य रूप से तो देव ऐसे एक हैं, २. विशेष से अरहंत और सिद्ध-ऐसे दो भेद हैं, ३. नामभेद से भेद करें तो इनके हजारों नाम हैं तथा ४. गुणभेद से भेद करें तब अनंत गुण हैं। उनमें परम औदारिक देह में स्थित, घातिया कर्मों से रहित, अनंत चतुष्टय सहित तथा धर्म का उपदेश करने वाले-ऐसे तो अरहंत देव हैं तथा पुद्गलमयी देह से रहित, लोक के शिखर पर तिष्ठे हुए, सम्यक्त्वादि अष्टगुण मंडित और अष्टकर्म रहित-ऐसे सिद्ध
देव हैं। इनके अर्हन, जिन, सिद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर, विष्णु, ब्रह्मा, हरि, बुद्ध, 崇明崇明藥業業樂業、 業業助聽業事業樂業
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