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प्रारम्भिक सूक्ति
चैत्यगृह
जिनमुद्रा
ज्ञान
आयतन
प्रतिमा
देव
जिनबिम्ब
तीर्थ
दर्शन
४-२
अरहंत
प्रव्रज्या
अनादि से संसार में भ्रमते प्राणी अपना दुःख मेटने को आयतन आदि ग्यारह स्थानक जो धर्म के ठिकाने उनका आश्रय लेते हैं पर उनका सच्चा स्वरूप जानते नहीं सो यथार्थ जाने बिना सुख कहाँ ! अतः आचार्य देव ने दयालु होकर जैसा सर्वज्ञ देव ने भाषा वैसा आयतन आदि का स्वरूप इस 'बोधपाहुड़' में यथार्थ कहा है, उसको बांचो-पढ़ो, धारण करो, उसकी श्रद्धा करो, उन स्वरूप प्रवर्तो जिससे वर्तमान में। सुखी रहो और आगामी संसार के समस्त दुःखों से छूटकर परमानन्द रूप मोक्ष को प्राप्त होओ।