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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्टपाहुड़
स्वामी विरचित
दंसणणाणचरितं तिण्णि वि जाणेह परमसद्धाए ।
जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं ।। ४० ।।
श्रद्धा परम से जानो उन, द ग्- ज्ञान-चारित तीन को ।
निर्वाण पाते योगी जिनको जान करके शीघ्र ही । ।४० ।।
अर्थ
हे भव्य ! तू दर्शन, ज्ञान व चारित्र - इन तीनों को परम श्रद्धा से जान, जिसको
जानकर योगी मुनि हैं सो थोड़े ही काल में निर्वाण को पाते हैं।
भावार्थ
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र त्रयात्मक मोक्षमार्ग है उसको श्रद्धापूर्वक जानने का
उपदेश है क्योंकि इसको जानने से मुनियों को मोक्ष की प्राप्ति होती है ।। ४० ।।
उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'इस प्रकार निश्चय चारित्र रूप ज्ञान का जैसा स्वरूप कहा, उसको जो पाते हैं वे शिव रूप मन्दिर में बसने वाले होते हैं' :
पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता ।
हुंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा । । ४१ । ।
पा ज्ञान जल संयुक्त हो, सुविशुद्ध निर्मल भाव से ।
त्रिभुवन के चूड़ामणि वे, शिवधामवासी सिद्ध हों । । ४१ । ।
अर्थ
जो पुरुष इस जिनभाषित ज्ञान रूप जल को पा करके अपने निर्मल भली प्रकार
विशुद्ध भाव से संयुक्त होते हैं वे पुरुष तीन भुवन के चूड़ामणि और 'शिव' अर्थात् मुक्ति
सोही हुआ 'आलय' अर्थात् मन्दिर उसमें बसने वाले ऐसे सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।
भावार्थ
जैसे जल से स्नान करके शुद्ध हो उत्तम पुरुष महल में निवास करते हैं वैसे यह
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