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आचार्य कुन्दकुन्द
* अष्टपाहुड़
उत्थानिका
विदियं ।
आगे तीन गुणव्रतों को कहते हैं :दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थदंडस्स वज्जणं भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि ।। २५ ।। दिश-विदिश गति परिमा प्रथम, द्वितिय अनर्थदण्ड वर्जना । परिमाण भोग-उपभोग हो, ऐसे ये गुणव्रत तीन हैं ।। २५ ।। अर्थ
(१) दिशा - विदिशा में गमन का परिमाण सो प्रथम गुणव्रत है, (२) अनर्थदण्ड का वर्जना सो द्वितीय गुणवत है और (३) भोग-उपभोग का परिमाण सो तीसरा गुणव्रत है - ऐसे ये तीन गुणव्रत हैं।
स्वामी विरचित
भावार्थ
यहाँ 'गुण' शब्द तो उपकार का वाचक है कि ये अणुव्रतों का उपकार करते हैं। दिशा विदिशा और पूर्व दिशा आदि हैं उनमें गमन करने की मर्यादा करे। 'अनर्थदण्ड' अर्थात् जिन कार्यों से अपना प्रयोजन नही सधता हो ऐसे जो पापकार्य उनको न करे ।
यहाँ कोई पूछता है- प्रयोजन के बिना तो कोई भी पुरुष कार्य नहीं करता है, जो करता है सो कुछ प्रयोजन विचारकर ही करता है फिर अनर्थदण्ड क्या ? उसका समाधान - सम्यग्द ष्टि श्रावक जो होता है वह प्रयोजन अपने पद के योग्य विचारता है, जो पद के सिवाय है सो अनर्थ है और पापी पुरुषों के तो सब पाप ही प्रयोजन हैं, उनकी क्या कथा ।
'भोग' कहने से भोजनादि और 'उपभोग' कहने से स्त्री, वस्त्र एवं आभूषण आदि
उनका परिमाण करे - ऐसा जानना । । २५ ।।
उत्थानिका
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आगे चार शिक्षाव्रतों को कहते हैं:
【專業
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米糕卐卐卐業業業業卐