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अष्ट पाहड
स्वामी विरचित
o आचार्य कुन्दकुन्द
१881
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उत्थानिका
अब ग्रंथकर्ता श्री कुन्दकुन्द आचार्य ग्रंथ के प्रारम्भ में ग्रंथ की उत्पत्ति और उसके ज्ञान के कारण परापर गुरु के प्रवाह को मंगल के लिए नमस्कार करते हैं:
काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्डमाणस्स। दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम समासेण।।१।। जिनवर व षभ और वर्द्धमान, जिनेन्द्र की कर वंदना। दर्शन जो मत के मार्ग का, संक्षेप से वर्णन करूं।।१।।
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अर्थ आचार्य कहते हैं कि 'मैं "जिनवरव षभ' ऐसे जो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव तथा 'वर्द्धमान' ऐसे जो वर्द्धमान नामक अंतिम तीर्थंकर, उन्हें नमस्कार करके 'दर्शन' अर्थात् मत के मार्ग को यथानुक्रम संक्षेप से कहूँगा।'
भावार्थ (१) यहाँ 'जिनवरव षभ' ऐसा विशेषण है उसका ऐसा अर्थ है-'जिन' ऐसे शब्द का तो अर्थ यह है कि 'जो कर्म शत्रु को जीते सो जिन', सो अविरत सम्यग्द ष्टि से लगाकर कर्म की गुणश्रेणी रूप निर्जरा करने वाले सब ही 'जिन' हैं; उनमें 'वर' अर्थात् श्रेष्ठ सो 'जिनवर' गणधर आदि मुनियों को कहते हैं; उनमें 'व षभ' अर्थात् प्रधान ऐसे 'तीर्थंकर परमदेव' हैं, उनमें आदि तीर्थंकर तो श्री ऋषभदेव हुए और इस पंचम काल के प्रारम्भ और चतुर्थ काल के अन्त में अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामी हुए उनका 'जिनवरव षभ' विशेषण हुआ तथा (२) 'जिनवरव षभ' ऐसे सारे ही तीर्थंकर हुए उनको नमस्कार हुआ, वहाँ 'वर्द्धमान' ऐसा विशेषण सब ही का जानना क्योंकि सब ही अन्तरंग एवं बाह्य लक्ष्मी से वर्द्धमान हैं। अथवा (३) जिनवरव षभ' शब्द से तो आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव को लेना और 'वर्द्धमान' शब्द से अन्तिम तीर्थंकर को लेना एवं इस प्रकार आदि व अंत के तीर्थंकरों को नमस्कार करने से
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