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अष्ट पाहड़
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स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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उत्थानिका
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आगे कहते हैं कि 'यदि स्त्री भी दर्शन से शुद्ध हो तो पाप रहित है, भली है :
जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पावया भणिया ।। २५ ।। पर यदी दर्शनशुद्ध हो तो, मार्गयुत है कही गई। आचरण घोर को आचरे, युतपाप कहलाती नहीं।।२५ । ।
अर्थ स्त्रियों में जो स्त्री 'दर्शन' अर्थात् यथार्थ जिनमत की श्रद्धा से शुद्ध है सो भी मार्ग से संयुक्त है, वह घोर चारित्र-तीव्र तपश्चरणादि आचरण से पाप से रहित होती है इसलिए पापयुक्त नहीं कहलाती।
भावार्थ स्त्रियों में भी यदि कोई स्त्री सम्यक्त्व से सहित हो और तपश्चरण करे तो पाप रहित होकर स्वर्ग को प्राप्त होती है इसलिये प्रशंसा योग्य है परन्तु स्त्री पर्याय से मोक्ष नहीं है।।२५।।
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आगे कहते हैं कि 'स्त्रियों के ध्यान की सिद्धि भी नहीं है :
टि0-1. म० व श्रु0 टी0' में इस पंक्ति में आए हुए 'पावया' |ब्द की सं0 छाया प्रवज्या' देकर पंक्ति
का अर्थ किया है कि स्त्र कठिन चारित का आचरण करके स्वर्ग जाती है, उसके निर्वाण योग्य दिगम्बर दीक्षा नहीं कही गई है।' 'पं0 जयचंद जी' ने इस पंक्ति का अर्थ स्त्र की प्रांसा करते हुए भिन्न रूप से इस प्रकार किया है कि स्त्र घोर चारिक का आचरण करके पाप से रहित होती है अत: पापयुक्त नहीं कहलाती।' ढूढ़ारी टीका में पं0 जी के इस अर्थ की अनुसारिणी 'पावया' ब्द की संस्कृत छाया 'प्रव्रज्या' के स्थान पर 'पापका' दी गई है।
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२-३६)
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