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________________ अष्ट पाहुड़storate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द VYAVAJAVN Dod 8 ADOO भावार्थ जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच महाव्रतों से सहित हो और मन, वचन, काय रूप तीन गुप्तियों से सहित हो वह संयमी है, वह ही निग्रंथ स्वरुप है और वह ही वंदने योग्य है। जो कुछ अल्प-बहुत परिग्रह रखे सो महाव्रती संयमी नहीं है-वह मोक्षमार्ग नहीं है, ग हस्थवत है।।२०।। उत्थानिका 樂樂崇崇崇崇勇樂樂業業兼業助兼業助業%崇崇勇崇崇 आगे कहते हैं कि 'पूर्वोक्त एक वेष तो मुनि का कहा, अब दूसरा वेष उत्क ष्ट श्रावक का है-ऐसा कहते हैं' :दुइयं च उत्त लिंग उक्किट्ठ अवरसावयाणं च। भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण।। २१।। है दूसरा जो लिंग उत्कष्ट, श्रावकों का अपर का। हो मौनयुत वा वाक् समिति, सपात्र भिक्षाटन करे ।।२१।। अर्थ 'द्वितीय' अर्थात् दूसरा लिंग-वेष 'उत्क ष्ट अपर श्रावक' अर्थात् जो ग हस्थ नहीं ऐसा उत्कष्ट श्रावक उसका कहा है, सो उत्क ष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है, वह भ्रमण करके भिक्षा के द्वारा भोजन करता है और 'पत्ते' अर्थात् पात्र में करता है अथवा हाथ में करता है और समिति रूप प्रवर्तता हुआ भाषा समिति रूप बोलता है अथवा मौन से प्रवर्तता है। भावार्थ एक तो मुनि का यथाजात रूप लिंग कहा और दूसरा यह उत्क ष्ट श्रावक का कहा सो ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उत्क ष्ट श्रावक है, वह एक वस्त्र तथा कोपीन (लंगोटी) मात्र धारण करता है और भिक्षा के द्वारा भोजन करता है तथा पात्र में भी भोजन करता है अथवा करपात्र में भी करता है तथा समिति रूप वचन भी कहता है अथवा मौन भी रखता है-इस प्रकार ऐसा यह दूसरा वेष है।।२१।। 崇帶养添馬艦帶男藥先崇勇崇崇勇攀事業事業事業樂業樂業 崇明崇明崇明崇明崇崇 崇 明崇寨崇明崇明崇明崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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