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________________ अष्ट पाहुड़storate स्वामी विरचित आचार्य कुन्दकुन्द HAVANWAMI Dod fact ૩૫ર્થ जिसके मत में 'लिग' जो वेष उसके परिग्रह का अल्प तथा बहुत का ग्रहण करना कहा है वह मत तथा उसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है-निंदा के योग्य है क्योंकि जिनवचन में जो परिग्रह रहित है सो निराकार है, निर्दोष मुनि है-ऐसा कहा है। भावार्थ श्वेताम्बरादि के कल्पित सूत्रों में वेष में अल्प-बहुत परिग्रह का ग्रहण कहा है सो सिद्धान्त तथा उसके श्रद्धानी निंद्य हैं। जिनवचन में परिग्रह रहित को ही निर्दोष मुनि कहा है।।१६।। 藥業兼崇明崇明藥業業業業乐業%崇崇崇崇%崇崇崇 का आगे कहते हैं कि 'जिनवचन में ऐसा मुनि वन्दने योग्य कहा है' : पंचमहव्वयजुत्तो तिहि गुत्तिहि जो स संजदो होइ। णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य।। २०।। त्रय गुप्ति, पंच महाव्रतों से, युक्त जो संयत वही। निर्ग्रन्थ मुक्तीमार्ग है वह, प्रकट वंदन योग्य है।।२०।। अर्थ जो मुनि पाँच महाव्रतों से युक्त हो और तीन गुप्ति से संयुक्त हो सो ही संयत है-संयमवान है और निग्रंथ मोक्षमार्ग है तथा वह ही प्रकटपने निश्चय से वंदने योग्य है। 崇帶养添馬艦帶男藥先崇勇崇崇勇攀事業事業事業樂業樂業 टि0-1. म0 टी0' में इसका अर्थ 'अनपवदनीय-अपवादरहित अर्थात् अनिंद्य' किया है। 'मु0 प्रति' व 'श्रु0 टी0' में यहाँ 'निराकार' के स्थान पर निरगार' पाठ है परन्तु पं0 जयचंद जी' ने अपनी मूल टीका में प्राकृत गाथा के निरायार' ब्द का अर्थ यहाँ भी और आगे चारित्र्याहुड़ में भी संयमाचरण चारित्र के प्रकरण में गाथा 21 व 28 के अर्थ में निराकार' ही किया है अत: यहाँ मूल टीका अनुसारी पाठ ही दिया गया है। 明崇明崇崇勇崇步骤業,然崇明藥勇崇崇崇崇崇明
SR No.009483
Book TitleAstapahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhabda, Kundalata Jain, Abha Jain
PublisherShailendra Piyushi Jain
Publication Year
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size151 MB
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