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अष्ट पाहुड़storate
स्वामी विरचित
आचार्य कुन्दकुन्द
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अर्थ
樂樂崇崇崇崇明崇崇崇勇兼功兼業助兼業助業 業業業坊業
जो दिगम्बर मुद्रा का धारक मुनि इन्द्रिय-मन का वश करना और छह काय के जीवों की दया करना-ऐसे संयम से तो सहित हो और 'आरम्भ' अर्थात् ग हस्थ के जितने आरम्भ हैं उनसे तथा बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह से विरक्त हो, उनमें नहीं प्रवर्ते तथा 'अपि' शब्द से ब्रह्मचर्य आदि से युक्त हो वह इस देव-दानवों से सहित मनुष्य लोक में वंदने योग्य है, अन्य वेषी-परिग्रह और आरम्भादि से युक्त पाखण्डी वंदने योग्य नहीं है।।११।।
e |उत्थानिका 0 आगे फिर उनकी प्रव त्ति का विशेष कहते हैं :जे बावीसपरीसह सहति सत्तीसएहिं संजुत्ता। ते होंति वंदणीया कम्मक्खयणिज्जरासाहू ।। १२।। बाईस परिषह को सहें जो, शक्ति शत संयुक्त हैं। वे कर्म क्षयमय निर्जरा, परवीण साधु वंद्य हैं।।१२ । ।
अर्थ जो साधु-मुनि अपनी सैंकड़ों शक्तियों से युक्त होते हुए क्षुधा एवं त षादि बाईस परीषहों को सहते हैं वे साधु वंदने योग्य हैं। कैसे हैं वे कर्मों का क्षय रूप जो उनकी निर्जरा उसमें प्रवीण हैं।
भावार्थ __जो बड़ी शक्ति के धारक साधु हैं वे परीषहों को सहते हैं, परीषह आने पर अपने पद से च्युत नहीं होते उनके कर्मों की निर्जरा होती है, वे वंदने योग्य हैं।।१२।।
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आगे कहते हैं कि 'जो दिगम्बरमुद्रा के सिवाय किसी वस्त्र को धारण करते हैं
और सम्यग्दर्शन-ज्ञान से युक्त होते हैं वे इच्छाकार करने योग्य हैं :崇明崇明崇明聽聽聽聽騰騰崇勇兼業助兼業