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बहिरात्मा पर को आप मानता है देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाणु मुणेइ। सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसार भमेइ॥१०॥
देहादिक जो पर कहे, सो मानत निज रूप।
बहिरातम वे जिन कहें, भ्रमते बहु भवकूप॥ अन्वयार्थ – (देहादिउ जे पर कहिया) शरीर आदि जिनको आत्मा से भिन्न कहा गया है। (ते अप्पाणु मुणेइ) उन रूप ही अपने को मानता है। (सो बहिरप्पा) वह बहिरात्मा है।(जिणभणिउ) ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है (पुणु संसार भमेइ) कि वह बारम्बार संसार में भ्रमण करता रहता है।
वीर संवत २४९२, ज्येष्ठ कृष्ण ६,
गाथा १० से १२
गुरुवार, दिनाङ्क ०९-०६-१९६६ प्रवचन नं.४
यह योगसार, यह शास्त्र योगीन्द्रदेव कृत है। जो परमात्मप्रकाश बनाया है, उन्होंने यह बनाया है। दसवीं गाथा में बहिरात्मा की व्याख्या थोड़ी आयी है, साधारण आयी थी, अब विशेष विस्तार से कहते हैं । बहिरात्मा पर को आप मानता है।
देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाणु मुणेइ।
सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसार भमेइ॥१०॥ यह श्लोक है। यह आत्मा अखण्ड आत्मा शुद्ध चैतन्य वस्तु अभेद पदार्थ है, उसे छोड़कर जो कुछ यह शरीर, घर, धन-धान्य, मकान, आबरू, कीर्ति, शरीर की क्रिया या अन्दर में पुण्य-पाप का भाव (होता है), वह सब मेरा है – ऐसा मानता है, वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। जुगराजजी!