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की गयी है, जो रचनाकार प्रारम्भ में ही बतलाते हैं। तत्पश्चात् शास्त्र के अन्तिम भाग में अपनी भावना के लिए इस ग्रन्थ की रचना की है, ऐसा उल्लेख भी प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ की हिन्दी टीका करने का सौभाग्य ब्रह्मचारी पण्डितश्री शीतलप्रसादजी ने प्राप्त किया है। जीव, संसार परिभ्रमण से मुक्त होकर स्व-स्वरूप का अवलम्बन ग्रहण करे, इस मुख्य उद्देश्य को प्रकाशित करते हुए प्रत्येक दोहे की रचना की गयी है। जिसमें अन्तरात्मा, बहिरात्मा, परमात्मा का स्वरूप; आत्मज्ञानी ही निर्वाण का पात्र है; तप का स्वरूप; परिणामों से बन्ध-मोक्ष; पुण्यभाव का निषेध; मूल आत्मस्वरूप का अस्ति-नास्ति से वर्णन; सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र का महत्त्व इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों को दर्शाते हुए इन दोहों की रचना की गयी है।
__ अतीन्द्रिय आनन्द की कलम और शान्तरस की स्याही से लिखे गये अमृत से भरपूर इन ग्रन्थों के वचनों का रसपान करानेवाले, इन आगमों में समाहित गूढ़ अध्यात्मरहस्यों का उद्घाटन करनेवाले, मूल मोक्षमार्ग-प्रकाशक, निष्कारण करुणामूर्ति, सिंहवृत्तिधारक, उन्मार्ग का ध्वंस करनेवाले और जैनधर्म के प्रणेता, विदेहीनाथ सीमन्धर भगवान का दिव्य सन्देश लाकर भरत के जीवों के तारणहार बनकर पधारे इन दिव्यदूत, दिव्यपुरुष, सुषुप्त चेतना को जागृत करनेवाले अनन्त गुण से दैदीप्यमान गुणातिशयवान्, मंगलकारी, पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने अनेक दिगम्बर सन्तों द्वारा रचित शास्त्रों पर प्रवचन किये हैं। उनमें योगसार ग्रन्थ भी एक है। योगसार ग्रन्थ संक्षिप्त में लिखा होने पर भी उसमें मूल परमार्थ किस प्रकार रहा है, उस पर पूज्य गुरुदेवश्री ने प्रकाश डालकर हम सब पर अनन्त उपकार किया है।
पूज्य बहिनश्री चम्पाबेन के शब्दों में कहें तो पूज्य गुरुदेवश्री इस काल का अचम्भा । आश्चर्य है ! पूज्य गुरुदेवश्री के उपकारों का वर्णन मर्यादित कलम शक्ति में समाविष्ट हो सके - ऐसी सामर्थ्य नहीं है। रूपी द्वारा अरूपी का कितना वर्णन हो! जड़ द्वारा चैतन्य की कितनी महिमा हो! अतः पूज्य गुरुदेवश्री के प्रस्तुत प्रवचनों को हृदयंगम करके, उनके द्वारा दर्शाये गये मार्ग पर चलना ही उनके प्रति यथार्थ उपकार व्यक्त किया कहलायेगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रवचन अक्षरश: प्रकाशित हो - ऐसा प्रस्ताव हमारे समक्ष आने पर हमने सहर्ष स्वीकार किया और शीघ्र प्रकाशित करने की भावना के साथ - ऐसा निर्णय लिया गया कि पूज्य गुरुदेवश्री के जितने प्रवचन हुए हैं, वे सब अक्षरशः ग्रन्थारूढ़ करना है। पूज्य गुरुदेवश्री के प्रभावनायोग में अनेक जिनमन्दिर हुए, प्रतिष्ठाएँ हुईं, प्रवचन हुए और जैनधर्म का मूल में से उद्योत हुआ। पामर में से परमेश्वर होने का मार्ग, दोष पर विजय प्राप्त करके, जैन होने का मार्ग जयवन्त रहे तथा पूज्य गुरुदेवश्री की वाणी शाश्वत् रहे ऐसी हमारे ट्रस्ट की भावना तथा मुख्य उद्देश्य के साथ योगसार प्रवचन भाग-१ प्रकाशित करते हुए हमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है।