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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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इन्द्रिय सुख में बाधा पहुँचती है, उनका शत्रु बन जाता है । इन्द्रिय सुख में विघ्न करनेवाले को शत्रु मानता है । इन्द्रिय सुख में अनुकूल माने और मित्र माने परन्तु इन्द्रियसुख ही तेरा खोटा है। ठीक कहा है।
सर्व प्राणी अपने सुख के स्वार्थ में दूसरों के प्रति मोह करते हैं। सभी प्राणी अपने सुख के लिए (मोह करते हैं) । कहीं-कहीं अण्डरलाईन की है । इतना सब पढ़ने का समय कहाँ है ? सब प्राणी सुख के स्वार्थ में दूसरों के प्रति मोह करते हैं । सुख के स्वार्थ के लिए.... यदि आत्मा का सुख इसे भासित हो तो बाहर में सुख भासित नहीं हो तो उनके निमित्तों में भी उन्हें सुख का सहकारी नहीं माने। कहो, ठीक होगा, दरबार ? हमारा दरबार है यह । कहो, समझ में आया ? स्वार्थ न सधे तो स्नेह छोड़ देता है। स्वार्थ न सधे, शरीर में खून न देखे या पैसा न देखे, कमाता न देखे तो (ऐसा कहता है) यह तो साधारण व्यक्ति हो गया है। घर में एक कमजोर व्यक्ति है, कमजोर । यह सब इन्द्रिय सुख के लोलुपी होते हैं, और निमित्तों में मोह करते हैं तो वहाँ ऐसा है, कहते हैं । मनसुखभाई ! तुम तो अब निवृत्त हो गये है । कुछ अब दोनों लड़कों को सामने देखना ? बापू वहाँ मरते हैं या जीते हैं ? आहा...हा...!
ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव को जल में कमल की तरह घर में रहना चाहिए। कमल और जल को जैसे स्पर्श नहीं होता, वैसे धर्मात्मा को अपने अतीन्द्रिय आनन्द के सुख का साधक अपने आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द है । उस आनन्द के सुख का साधक, जल में कमल को लेप नहीं लगता, उस प्रकार गृहस्थाश्रम में सम्यक्त्वी रहता है। समझ में आया ? बड़ी सामायिक में कहा है यह स्त्री, धन, पुत्र सर्वथा ही अपने आत्मा से भिन्न हैं, बाहरी रहनेवाले हैं, कर्म के उदय में प्राप्त हैं, वायु के समान उनका संयोग चंचल है। समीर... समीर शब्द है न ? जैसे वायु क्षण में वायु आवे - ऐसे ये सब पत्ते वायु के कारण जैसे फिरा करते हैं - ऐसे क्षण में आवें और क्षण में जावें । पूर्व का पुण्य होवे तो मिलान खाता है । जहाँ पुण्य (समाप्त हुआ वहाँ ) फू... होकर सब उड़ जाते हैं । लो, समझ में आया? जो मूढ़ बुद्धि जीव उनके संयोग से सुखदायक सम्पत्ति मिलना मानते हैं, वे ऐसे मूर्ख हैं जो अपने मन के संकल्प से ही स्वर्ग की सम्पत्ति प्राप्त