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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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आया? यह भाव सुख दुःख का ही कारण है। सुख-दु:ख अर्थात् लौकिक सुख -दु:ख, हाँ! यह सब सुख-दुःख अर्थात् दुःख का ही निमित्त है। पूरा परिवार, स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब दुःख का ही निमित्त है। उसके पालन-पोषण में समय गँवा मत; आत्मा में रहना – ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षु – उन्हें भूखों मरने दिया जाए?
उत्तर – भूखा कौन मरता था? उनके पुण्य प्रमाण उन्हें मिला रहेगा। भगवानजी भाई! क्या करना इसमें? कहते हैं । लो! योगसार है न! आत्मा में एकाग्र होने के लिए इस वस्तु का – परिवार का मोह छोड़ना, अन्दर में से यह मेरे हैं – ऐसा निकाल डालना। समझ में आया? वे तो उनके कारण आये और उनके कारण रह कर उनके कारण चले जाते हैं। मेरा और उनका कुछ सम्बन्ध नहीं है – ऐसा दृष्टि में एकाकार नहीं होवे तो एकाकार योगसार नहीं हो सकता। हैं? क्या करना परन्तु ? अच्छा लड़का हो तो उसके लिए थोड़ा काल व्यतीत करना या नहीं?
इस प्रकार कुछ विचार करने से.... देखो! 'इम किं चिंततह' संसार का छेद शीघ्र ही किया जाता है। बारम्बार विचार.... अरे! शरीर मेरा नहीं तो शरीर को पहचाननेवाले ये सब मेरे कहाँ से (होंगे)? वे तो बेचारे इसे पहचानते हैं। मुझे कहाँ पहचानते हैं वे? मैं कौन हूँ? यह कहाँ जानते हैं? वे तो (जानते हैं कि) यह शरीर मेरा पिता, और यह मेरी माँ, और यह मेरी स्त्री, यह मेरा पति... शरीर को देखकर कहते हैं। यह शरीर, यह मेरा पुत्र; यह शरीर, मेरा पिता; यह शरीर, मेरी स्त्री; यह शरीर.... उसका आत्मा है, उसे कौन कहता है ? रमणी?
मुमुक्षु - सेवाभावी है।
उत्तर – सेवाभावी है, लो, ठीक! अपना छोड़कर भी वहाँ भाईयों की सेवा में रुका है। आंकड़िया' सेवाभावी सही न ! परन्तु सेवाभावी का अर्थ हुआ या नहीं, अपनी सेवा छोड़कर पर की सेवा करने का भावी... ऐसा।
यह प्राणी इन्द्रिय सुख का लोलुपी होता है। अपने सुख की प्राप्ति में सहकारी प्राणियों के प्रति मोह करता है। ऐसा कहते हैं । स्वयं जिन इन्द्रियों के सुख