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योगसार प्रवचन (भाग-१)
अनन्त लक्ष्मीवाला-आनन्दवाला है। लक्ष्मीवाला नहीं, मूढ़ है। व्यर्थ में मानता है – ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षु – व्यर्थ का होगा? मजा करता है। उत्तर – मजा करता है – भटकने का।
मिच्छादंसणमोहियउ देखो, यहाँ किसी कर्म के कारण मोहित है – ऐसा नहीं है। अपना स्वरूप शुद्ध चिदानन्दप्रभु अनाकुल आनन्द को स्पर्श किये बिना – उसे छुए बिना, इन बाह्य की चीजों - कर्म के निमित्त से प्राप्त बाह्य और अभ्यन्तर (चीजें) यह सब कर्म -सामग्री है; आत्म-सामग्री नहीं। शुभाशुभभाव होवे असंख्य प्रकार के शुभ-अशुभ या बाहर की अनन्त प्रकार की सामग्रियों की अनाकुलता-प्रतिकूलता, यह सब कर्म के फल का साम्राज्य है। उसमें चैतन्य नहीं है। आहा...हा...! कहो, समझ में आया इसमें? परन्तु इसे जहाँ पास हो, उसे मैं पास हुआ – ऐसा माने तो मिथ्यादर्शन से मोहित हुआ है – ऐसा यहाँ तो कहते हैं।
मुमुक्षु - तो क्या फेल हुआ मानें?
उत्तर – परन्तु इस अज्ञान में पास-फेल यह तो कर्म की सामग्री का फल है। इसलिए जरा क्षयोपशम हो और उसमें वह भाव आया, वह कहीं आत्मा का स्वभाव नहीं है। मिथ्यादर्शन से मोहित प्राणी उसमें प्रसन्न होता है, उसे अपना स्वरूप मानता है – ऐसा इसमें कहते हैं। कहो, समझ में आया या नहीं?
मुमुक्षु - बहुत लम्बी व्याख्या की है।
उत्तर – लम्बी होगी या नहीं। ए.... भरतभाई! लड़के किसलिए ना करेंगे? आहा...हा... ! 'परु अप्पा ण मुणेइ' देखा? भगवान पूर्णानन्द एक समय में अनन्त समृद्धि का, पूर्णस्वरूप प्रभु आत्मा का है। उसे न मानकर बहिरात्मा मूढ़ होकर उस अल्पज्ञ अवस्था को या विकार को या बाह्य संयोग को वह मिथ्यादृष्टि जीव, मोहित होता हुआ (अपना) मानता है। आहा...हा...!
मुमुक्षु – उसकी व्याख्या ही ऐसी की 'परु अप्पा ण मुणेइ'।