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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) कषाय, राग-द्वेषभाव का नाश करता है । अन्तरंग का चौदह प्रकार का भाव परिग्रह छोड़ता है, यह सब छोड़कर एकान्त में ध्यान करता है - ऐसा कहते हैं । ४४३ जितने भाव कर्मों का निमित्त होते हैं, वे सब अनित्य हैं, उन सबके प्रति राग छोड़ता है.... भगवान आत्मा नित्यानन्द प्रभु की शरण लेने से, उसका आश्रय लेने पर, उसका ध्यान अनुभव करने से, कर्म के संग से उत्पन्न हुआ विकार, फिर शुभराग दया, व्रत हो या अशुभ हो सब अनित्य है, अनित्य हैं, क्षणिक हैं, उपाधि हैं, उन्हें छोड़े। नित्यानन्द का ध्यान करे और अनित्य राग को छोड़ता है, उसमें 'परभाव चएवि' आया न? परभाव को छोड़े और 'अप्पा अप्प मुणंति' उसमें से यह निकल सकता है। क्या कहा ? विकारभाव पुण्य-पाप, शुभाशुभ, वह अनित्य है क्योंकि निमित्त के लक्ष्य से हुए क्षणिक (भाव) है। उन्हें छोड़कर 'अप्पा अप्प मुणंति' नित्यानन्द भगवान आत्मा को निर्मलानन्द पर्याय से अनुभव करे। समझ में आया ? कठिन डाला है, हाँ ! संक्षिप्त शब्दों बहुत रखा है। औदयिक, क्षायोपशमिक और छूट जानेवाले ऐसे औपशमिक भावों के प्रति विरक्त होकर क्षायिक और पारिणामिक जीवत्वमात्र को अपना स्वभाव मानकर एक शुद्ध आत्मा की बारम्बार भावना करता है। लो ! ठीक। क्या कहते हैं ? ‘परभाव चएवि' शब्द है न? पुण्य-पाप के विकल्प तो श्रद्धा में से छोड़े परन्तु उपशमभाव, क्षयोपशम भाव, और उदय; उदयभाव, क्षयोपशम और उपशम ये तीनों पर्याय छूटने लायक है । स्वभाव का आश्रय करने पर क्षायिक पर्याय प्रगट होती है । पारिणामिकभाव तो स्वयं है। समझ में आया ? आहा... हा...! मानो दूसरे देश में खेलते हों, उसकी यह बातें हैं। दूसरा देश है, दूसरा देश। समझ में आया ? ‘हम परदेसी पंखी साधु, आरे... देश के नाहिं रे.... हम परदेसी पंखी साधु, आरे..... देश के नाहिं रे.... आतम अनुभव करीने अमे उड़ी जासु सिद्ध स्वरूपे रे... हम परदेसी पंखी साधु..... आ... देशना नाहिं रे .... ' परभाव विकल्प के देश के हम नहीं हैं । आहा...हा... ! पुण्य और पाप के भाव के देश का आत्मा नहीं है, हाँ ! प्रभु ! आहा... हा...! यह भगवान अनन्त आनन्द का धाम स्वदेश- स्वधाम उसमें हम जायेंगे और यह हम छोड़ेंगे।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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