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योगसार प्रवचन (भाग-१)
४३७ उसी के प्रताप से श्रुतकेवली होता है। आत्मा के अनुभव से श्रुतकेवली होता है। आहा...हा... ! पढ़ने से नहीं होता – ऐसा यहाँ कहते हैं । आहा...हा...! क्या फल नहीं होता? आत्मा आनन्दकन्द की जहाँ अनुभवदशा प्रगट हुई, कहते हैं कि (वह) श्रुतकेवली होता है । पढ़ना नहीं पड़ता और श्रुतकेवली होता है। आत्मा पढा, वह श्रतकेवली होता है - ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षु - बारह अंग, चौदहपूर्व धारी श्रुतकेवली?
उत्तर – हाँ, यहाँ निश्चय भान हुआ, वह श्रुतकेवली हुआ, परन्तु यह श्रुतकेवली उसकी बात करते हैं, ज्ञान की उग्रता की बात करते हैं। समझ में आया? श्रुतकेवली तो निश्चय से अनुभव हुआ, वह निश्चय श्रुतकेवली ही है। वह बारह अंग, चौदह पूर्वधारी श्रुतकेवली नहीं परन्तु यह अनुभव होने पर वह श्रुतकेवली होता है – ऐसा कहते हैं। उसके अनुभव की जाति ऐसी है कि वहाँ अन्दर से आगे बढ़ने पर श्रुतकेवली हो जाता है। यह शास्त्र पढ़ते... पढ़ते... पढ़ते... श्रुतकेवली होता है – ऐसा नहीं, ऐसा निषेध करते हैं। भगवान की खान में यहाँ जो पूर्ण ज्ञान पड़ा है, उसका अनुभव होने पर श्रुतकेवली होता है, अवधि होता है, मन:पर्यय होता है... समझ में आया? और केवल (ज्ञान) भी होता है।
आत्मानुभवी का उद्देश्य केवल शुद्धात्मा का लाभ है। लो! परन्तु पुण्यकर्म बढ़ने से रिद्धि सम्पदायें स्वयं प्राप्त हो जाती हैं। आता है, कहते हैं । दृष्टान्त दिया है आम्रफल, आम्रफल.... आम... आम बोया, आम बोया तो पहले तो उसे पत्तियाँ आदि होती हैं न? पान, डाल, यह होने के बाद फल होता है। जैसे आम के लिये ही माली आम का वृक्ष बोता है, फल आने के पहले वह माली वृक्ष के पत्ते, डाली, और फूल का अनुभव करता है। बाद में आम का (अनुभव) होता है। समझ में आया? ऐसे आत्मा का अनुभव होने पर कितना ही पुण्य का भाग उसे बाहर आता है। स्वर्ग में सुख, चक्रवर्ती, तीर्थंकर इत्यादि.... आत्मा का सुख पूर्णानन्द की प्राप्ति (होता है)।
दूसरा दृष्टान्त दिया है। जैसे राजमहल की तरफ जानेवाला मनुष्य सुन्दर मार्ग पर चलता है। बड़ा चक्रवर्ती का बंगला हो, उसमें जाने पर मार्ग के रास्ते में ही उसकी दूसरी जाति होती है। वह कहीं दूसरे के घर जैसा मार्ग अन्दर नहीं होता।