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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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गये शान्तिभाई ! सो गये होंगे। समझ में आया ? स्फटिक की मूर्ति घोघा में है, उसे यहाँ लाकर रखना। ऐसी बातें चलती थी, हम सुनते थे । न आया तो नहीं हुआ, न हो तो क्या ? यह (संवत) १९९७ में होने का था, वह हुआ। भाई ! यह बातें ऐसी हैं। पर के कार्य आत्मा करे, वह तो बहिरात्मा पर को (और) अपने को दोनों को एक मानता है । भिन्न मानने की उसकी योग्यता नहीं है, वहाँ तक चार गति के भय छुटकारा नहीं है । आहा... हा...! 'जिम सिवसुक्ख लहेवि' देखो मोक्ष के सुख को पाता है – एक बात । चार गति में सुख नहीं है - ऐसा सिद्ध किया । मोक्ष के सुख को पाता है। शिव अर्थात् मोक्ष ! शिव अर्थात् शंकर का सुख - ऐसा नहीं । शिवसुख नहीं आता ? नमोत्थुणम में शब्द में शिव लयो शिव अर्थात् निरूपद्रव । उपद्रवरहित आत्मा के आनन्द की (प्राप्ति) । नमोत्थुणम में आता है परन्तु अर्थ कहाँ से आता होगा ?' सिवमलयमरुयमणंतमरुमफ्खयमव्बाहमपुणरवित्ति' आता है न? किसे पता एक भी शब्द का ? पहाड़े बोलते जाते हैं।
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यहाँ सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा हुआ योगीन्दुदेव कहते हैं । आत्मा क्या है ? – उसे पहले जानना और फिर उसका ध्यान करना अर्थात् दृष्टि का पलटा मारना। ऐसी (बहिर्मुख) दृष्टि है, (उसे) ऐसी ( अन्तर्मुख) करना । उससे ध्यान से शिवसुख प्राप्त करेगा । इसके अतिरिक्त मोक्ष के सुख की प्राप्ति का दूसरा उपाय वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर के मार्ग में नहीं है । अन्यत्र तो है नहीं। पाँचवीं (गाथा पूरी ) हुई ।
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आत्मा के तीन प्रकार
तिपयारो अप्पा मुणहि परू अंतरू बहिरप्पु ।
पर झायहि अंतरसहिउ बाहिरू चयहि णिभंतु ॥ ६ ॥
विविध आत्मा को जानके, तज बहिरातम रूप । अन्तर आतम होय के, भज परमात्म स्वरूप ॥
अन्वयार्थ – ( अप्पा तिपयारो मुणहि ) आत्मा के तीन प्रकार जानो, (परू) परमात्मा ( अंतरू ) अन्तरात्मा (बहिरप्पु) बहिरात्मा ( णिभंतु ) भ्रान्ति या शङ्का रहित