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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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इस मनुष्य शरीर से ऐसा साधन हो सकता है कि फिर कहीं भी शरीर धारण नहीं करना पड़े। कहते हैं कि ऐसा नरक के स्थान जैसा नरदेह है परन्तु इसमें यदि आत्मा अपना साधन करे तो फिर देह नहीं मिलती। फिर से शरीर नहीं मिलता - ऐसा यहाँ आत्मा में साधन है । आहा...हा... ! परन्तु यह आत्मा क्या ? इसे माहात्म्य नहीं आता । किञ्चित् यह दया पालन करूँ, यह व्रत पालूँ, भक्ति करूँ और पूजा करूँ, शरीर करूँ, यात्रा करूँ और वह करूँ, भोग करूँ - ऐसी क्रियाकाण्ड और राग को देखने में इसकी जिन्दगी जाती है। भगवान की भक्ति वह राग है, वह शुभराग है। ए... माँगीरामजी ! भगवान की भक्ि शुभराग है, हिंसा है। भले ही आवे परन्तु है हिंसा... आत्मा की हिंसा होती है। ए... जगजीवनभाई ! परन्तु यह क्या हाँ जी करते हो ? भगवान की भक्ति हिंसा ? कोई करेगा नहीं । सुन न! करे न करे, वह भाव आये बिना रहेगा नहीं परन्तु वह भाव - भगवान की भक्ति का भाव भी शुभराग है। शुभराग भी स्वभाव की हिंसा (करता है ।) आहा... हा...! कहते हैं कि तेरा प्रेम वहाँ लूट गया, यहाँ तो देखता नहीं, यहाँ तो ऐसा कहते हैं। यह सब शरीर का राग, बाहर का राग-प्रेम में तू लुट गया । तुझे आत्मा भगवान सच्चिदानन्दप्रभु, सिद्धसमान सदा पद मेरो - ऐसे आत्मा के प्रति तो तुझे प्रेम, रति और रुचि हुई नहीं । रति, रुचि हुए बिना तेरे जन्म-मरण मिटनेवाले नहीं हैं।
परन्तु यह बात तो जैसे हो वैसे आयेगी न। एई ... निहाल भाई ! भाव आता अवश्य है... भक्ति, पूजा, दया, दान का शुभभाव (आता अवश्य है ) । परन्तु वह शुभराग कहीं आत्मा का स्वभाव नहीं है । यहाँ तो स्वभाव के प्रेम की बात चलती है; इसलिए स्वभाव से विरुद्ध भाव का प्रेम, रुचि मिथ्यात्वभाव है । यह राग- भक्ति (स्वयं) मिथ्यात्वभाव नहीं है परन्तु राग में धर्म-आत्मा का निश्चय से कल्याण होगा - ऐसी मान्यता को भगवान, मिथ्यात्व कहते हैं । आहा... हा... ! ए... जयन्ती भाई ! तुम्हारे तो कहाँ मूर्तिपूजा थी ? ठीक है, परन्तु इन मूर्ति पूजावालों को विवाद उत्पन्न हो ऐसा है। तुम्हारे (तो) भगवान की माला जपते हैं, लो न ! णमो अरिहन्ताणं.... णमो अरिहन्ताणं... वही का वही है । माला गिने तो भी शुभरा है; यह राग है, वह आत्मा के स्वभाव की हिंसा है। ए... माँगीरामजी ! अर... र... ! हैं ? यह राग है, वह आत्मस्वभाव का प्रेम कराकर छुड़ाना है । आहा... हा... ! यहाँ तो